मन को थोड़ा समझा लें हम
क्यों करना ऐसा हनन
कैसे उपजे है यह चिंतन
क्यों होना इतना मुंहफट
कर लेते कुछ तो मंथन।
उपालम्भ और आलोचना
जायज है क्या तकरार?
शब्दों से करना छलनी
सच में इसकी है दरकार।
आवरण धारण है मौन का
पर खामोशी में भी शोर है
क्या गरल पीने लगे हो तुम?
यह तुम ही हो या कोई और है।
कुछ क्षण व्यथित रही
और थोड़ी भ्रमित रही
धत्त तेरी सुन पगली
अब भी तू चकित रही।
विद्वान सर्वत्र पूज्यते
क्यों इसको तू गई भूल
फूल बिछाए राहों पर कौन
लाँघते चलो पथ के शूल।
होगा निश्चित पथ प्रशस्त
खुद में रहना तुम आश्वस्त,
एकला चल तू बंधु
इक दिन होना सबको अस्त।
— सविता सिंह मीरा