संगठन की शक्ति
“यह तो वही जगह है न, जहां हम नाव में सवार होकर डोलते थे! कैसी सूख-साख कर बंजर-सी लग रही है!” गांव में घूमने आए रमेश ने अपने दोस्त जगदीश से पूछा.
“हां यार, सूखना तो था ही! देखते नहीं कितना कचरा भरा पड़ा है! ऊपर से चारों ओर के पेड़ कट गए, बरखा रानी रूठ गई.”
“सुना है हमने जो सूखे से निपटने का हुनर सीखा था, उससे तुम्हारा गांव बाग-बहार हो रहा है!” जगदीश ने उसको चिंतित देखकर कहा.
“यह भी तो मेरा ही गांव है! चलो अभी सब युवाओं को इकट्ठा कर जगाते हैं, अपने हुनर को चमकाते हैं, गांव को हरा-भरा बनाते हैं.”
“हां यार, संगठन की शक्ति को फिर से शक्तिमान जो करना है!”
— लीला तिवानी