कविता

कब ज़िंदगी की शाम हो जाये

काम करो ऐसा कि आदमी अच्छा इंसान हो जाये
ज़्यादा नहीं बस लोगों में इक पहचान हो जाये
किसी के काम आ जाओ करते रहो कुछ ऐसा
न जाने कब ज़िन्दगी की शाम हो जाये

पतझड़ में पता पेड़ से है टूट जाता
टूट गया जो फिर जुड़ नहीं पाता
नई कोंपलें आती है फिर टूट हैं जाती
यही सिलसिला जीवनपर्यंत चलता है जाता

फूल खिलता है खुशबू चमन में है फैलाता
जिंदगी लोगों की खुश्बू से है महकाता
पतझड़ के बाद तो है बसंत को ही आना
बसंत से तो प्रकृति में नवरस का संचार हो जाता

जीवन एक खेल है खेलना तो पड़ेगा
कोई हार जाएगा कोई जीत के लिए लड़ेगा
कितनी देर तक जलेगा ज़िन्दगी का दीपक
हमारे हाथ में नहीं यह तो ऊपरवाला ही तय करेगा

— रवींद्र कुमार शर्मा

*रवींद्र कुमार शर्मा

घुमारवीं जिला बिलासपुर हि प्र

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