पीड़ा और माध्यम
मैं अक्सर सोचता हूँ
कैसी व्यक्त होती हैं पीड़ा.
देखा ज़ब एक दिन
स्वयं को व्यक्त होते हुए.
हिम्मत नहीं थीं,
कुछ भी कार्य कर पाने की.
फिर भी अव्यक्त हो,
निरंतर करता गया.
हो रही पीड़ाओ को,
बिन कुछ कहे सहता गया.
मैंने देखा क्यू होता हैं,
कैसे व्यक्त होता हैं,
व्याकुल मन के भाव
आँसुओ में लिपट बहने लगे.
फट पड़ा क्या मेरी पीड़ा,
तभी दिल की गहराईयों को
अंदर तक छू पाएगी,
ज़ब अश्रुओं की धारा बहेगी.
सच पीड़ा को भी,
व्यक्त होने के लिए
माध्यम का साथ चाहिए.
— संजय एम. तराणेकर