लघुकथा – मोल भाव
“अरे! भइया! तुमने तो लूट मचा रखी है।बीस रुपये की ककड़ी 40 रुपये किलो दे रहे हो।”
मेम साहब अपने कुत्ते को सहलाती सब्जी वाले को कह रही थी।
“नहीं मेमसाहब हमने कोई लूट मचा नहीं रखी है।यही भाव बाज़ार में चल रहा है।आप किसी को भी पूछ लीजिये।” सब्जी वाले ने बड़े मायूसी से कहा।
मेम साहब को चैन नहीं पड़ा। वे बाजू में बैठी एक सब्जी वाली को ककड़ी का भाव पूछा। उसने कहा-“पचास रुपए किलो है मैडम! लेना है तो लो पर पंचायत मत करो। जब आप बड़े-बड़े मॉल में और आन लाइन खरीददारी करते हो तो क्या उनसे इतना मोल भाव करते हो? हम गरीबों पर ही आप लोगों को शक होता है। हम लोगों से ही आप लोग भाव-करते हो फिर चाहे रिक्शा वाला हो चाहे ठेला वाला। सारी कसर हम निरुपाय गरीबों पर निकालते हो ।अरे ! जरा मॉल में भी मोल भाव कर खरीदा करो।”
यह सुनकर मेमसाहब पर घड़ों पानी पड़ गया।वे चुपचाप ककड़ी तौलाने लगी।
— डॉ. शैल चंद्रा