धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

जीवन का खेल

हे प्रभु! ये कैसी लीला है तेरीक्या सोच रहा है तू, क्या विचार है तेराजो नित्य ही मुझे असंमजस के भंवर में ढकेल रहा है।क्या इतना कर्जदार बना कर भीतुझे संतोष नहीं हो रहा है,जो अभी भी कर्जदार बनाता जा रहा है।वैसे भी मुझे तो लगता हैकि पिछले जन्म का कर्ज भी चुकता नहीं कर पाया हूँ अभी,और तू अगले जन्म में कर्जदार हीभेजने का इंतजाम किए जा रहा है,तभी तो रोज रोज नये नयेक़र्ज़ का बोझ बढ़ाता जा रहा है।तू कुछ भी कहे या करेमैं तेरी लीला जान रहा हूँ,ये तेरे क़र्ज़ का खेल है या खेल का कर्ज हैइसका तो कुछ पता नहींपर हमारे तुम्हारे रिश्तों का यही तो मेल हैऔर यही जीवन का खेल है,इस खेल का तू ही निर्णायक हैक्या परिणाम होगा तू पहले से ही जानता है,बस मुझे उलझाए रखना चाहता है,तभी तो मैदान में अकेला छोड़ मुझेतू दूर से चुपचाप मुझ पर निगाह रखता हैऔर कुछ भी नहीं बताता हैसिर्फ मुस्कराता हैपर कभी अकेला भी नहीं छोड़ता है।

*सुधीर श्रीवास्तव

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