मुस्तकिल नही यहां का, कोई मुसाफिर
तुझसे बेहतर यहां शबाब, ढल के चले गये
चाहे अर्श से पूंछ लो, चाहे फर्श से पूंछ लो।
जितनी तेरी नजर में, उतनी नही दुनियां
चाहे चांद देख लो, चाहे सूरज को देख लो
पहले भी बहुत दामन, लहरा चुके यहां
सुनामी में ढूंढ लो, चाहे हवाओं से पूंछ लो
अनगिनत गुरूर यहां, चकना चूर हो चुके
चाहे कब्र झांक लो, चाहे माटी को जांच लो
मुस्तकिल नही यहां का, कोई मुसाफिर
चाहे आज जान लो, चाहे ‘‘राज’’ जान लो
राज कुमार तिवारी ‘‘राज’’
बाराबंकी उ0प्र0