कुंडलिया – उपवन
उपवन में कलियाँ खिलीं,बगरी विमल बहार।
रिमझिम रह-रह दौंगरे, खोल रहे नव द्वार।।
खोल रहे नव द्वार, भेक टर-टर-टर बोलें।
कर भेकी आहूत , प्रणय के परदे खोलें।।
बरसा ‘शुभम्’ अषाढ़, प्रतीक्षारत है सावन।
तन-मन मिलन प्रगाढ़,मनोहर उन्मद उपवन।।
आओ उपवन में चलें, कलियाँ करें पुकार।
अंबर से झर- झर झरे, रिमझिम विरल फुहार।।
रिमझिम विरल फुहार, न कोई वीर बहूटी।
बरसीं नभ से लाल, मखमली अवनी -बूटी।।
रेंग रहे जलजीव, कहीं हमको दिखलाओ।
‘शुभम्’ टेरता पीव, पपीहा देखें आओ।।
मानव – जीवन एक है, उपवन सघन सजीव।
सुख – दुख जिसके वृक्ष हैं,बिखरे बेतरतीव।।
बिखरे बेतरतीव, फूल फल पल्लव सारे।
आच्छादित है देह, सँवरते नहीं सँवारे।।
‘शुभम्’ विकट संसार, नहीं बन जाना दानव।
करके स्वयं सुधार, बने रहना है मानव।।
अपना स्वयं सँवारना, उपवन सुंदर मीत।
छंदबद्ध लय ताल हो, जीवन है नवगीत।।
जीवन है नवगीत, नई उपमाएँ लेकर।
जगा हृदय में प्रीत, तभी जी पाए जीभर।।
‘शुभम्’ बनें रसखान, सदा पड़ता है तपना।
आती नवल बहार, तभी हो उपवन अपना।।
झाड़ी का कर्तन करें, जीवन उपवन रम्य।
काट- छाँट करनी पड़े, वरना बने अदम्य।।
वरना बने अदम्य, नियंत्रण खोता जाए।
खिलें जहाँ पर फूल, शूल पैने उग आएँ।।
‘शुभम्’ बने प्रतिकूल, चले जीवन की गाड़ी।
ज्यों दलदल के बीच,फँसी हो कोई झाड़ी।।
— डॉ. भगवत स्वरूप ‘शुभम्’