मुक्तक : नजारे
रोज देखना पड़ता है जातिय हिंसा के नजारे,
क्या देश चला पाओगे इस तिकड़म के सहारे,
बड़े बड़े तुर्रमखां भी नहीं बचा पाये जीवन
वास्तविकता, बदलाव,वक्त के समझो इशारे।
— राजेन्द्र लाहिरी
रोज देखना पड़ता है जातिय हिंसा के नजारे,
क्या देश चला पाओगे इस तिकड़म के सहारे,
बड़े बड़े तुर्रमखां भी नहीं बचा पाये जीवन
वास्तविकता, बदलाव,वक्त के समझो इशारे।
— राजेन्द्र लाहिरी