कहानी – आंधी के बाद
कौशल्या का घर परिवार बगीचे की तरह था जिसमें फल फूलों से लदे पेड़ थे और बगीचे में बहार ही बहार थी। वह देखकर इतराती थी। उसे कितना गुमान था अपने इस परिवार रूपी बगीचे पर। परंतु यह क्या? एक आंधी का तेज़ झोंका आया और सारे फल शाखाओं से जैसे टूटकर धरती पर आ गिरे। फूल पंखुड़ी पंखुड़ी बिखर गए। पत्तियों से लदी शाखाएं आथी टूटी हुई पेड़ों पर लटक आईं;। वह आंधी में अपने उजड़े बाग को देखकर जार जार रो उठी।
चार साल पहले ही की तो बात थी। उसका सुंदर खुशहाल घर-परिवार था। जिसे वह स्वीट होम कहती थी। भरा पूरा परिवार बेटा -बेटी और पति था। बेटी की शादी पास ही के गांव जो दरिया के पार दूसरे राज्य पंजाब में पड़ता था, एक साल पहले ही की थी। दामाद इकलौता बेटा था और फौज में था। खेती-बाड़ी ढोर – डंगर सब कुछ था उसके पास। छोटे से गांव में उसका खुशहाल परिवार था। गांव के लिहाज से जीवन यापन का सारा सामान था उसके पास। टीवी, फ्रिज, वाशिंग मशीन वगैरा-वगैरा। इससे ज्यादा उसकी चाहत भी नहीं थी और हैसियत भी नहीं थी। इसलिए वह इसी में खुश थी और संतुष्ट भी कि जो ईश्वर ने दिया है बहुत दिया है।
उस मनहूस दिन उसका पति धर्मा घासनी में घास काटने गया था और अचानक गिर पड़ा।
उसे सिर और आंखों में चोटें लग गईं। उसका बेटा अभिनव उसे पास के अस्पताल में ले गया और दिखाया तो उन्होंने कहा कि आप इसे पठानकोट ले जाओ। सिर की चोट है रिस्क नहीं लेना चाहिए। वहां अच्छे से इलाज हो जाएगा हमारे पास इतनी सुविधा भी नहीं है। इसलिए डॉक्टर ने उसे सलाह देते हुए पठानकोट में एक प्राइवेट अस्पताल के लिए रैफर कर दिया।
वे तो घर से इस पास के कस्बे तक आए थे कि यहीं इलाज हो जाएगा और शाम को वापस घर आ जाएंगे। क्योंकि चोटें इतनी गंभीर नहीं लग रही थीं। धर्मा ने तो कहा था की रहने दो दो-चार दिन में खुद ठीक हो जाएगा। परंतु बेटा अभिनव और वह ही नहीं माने थे कि अस्पताल में दिखाना जरूरी है। सिर की चोट है इसलिए लापरवाही क्यों की जाए? डॉक्टर को दिखाने में क्या हर्ज है? अपने गांव के पास के अस्पताल में ही तो जा रहे थे इसलिए न जेब में ज्यादा पैसे थे और न ही कपड़े लत्ते साथ लाए थे। परंतु डॉक्टर ने पठानकोट के लिए रेफर कर दिया तो उन्होंने थोड़े बहुत पैसे का वहीं मार्केट में प्रबंध किया और पठानकोट चले गए। पठानकोट में डॉक्टर ने चेक करने के बाद उन्हें दो-तीन दिन तक एडमिट होने के लिए कह दिया। शाम को उसे अभिनव का फोन आया और उसने बताया कि पापा को अस्पताल में एडमिट कर लिया है दो-तीन दिन तक हमें यही पठानकोट में रहना पड़ेगा।
वैसे आप फिकर मत करना पापा की हालत बिल्कुल ठीक है। उसने खुद भी धर्मा से बात की थी और आश्वस्त हो गई थी कि इनकी हालत ठीक है।
यूं तो वह सारी रात ठीक से सो नहीं पाई थी परंतु जैसे ही सुबह आंख लगी तो बेटे का फोन आ गया बोला- “मम्मा लॉकडाउन लग गया है। जो जहां है वहीं रुके ऐसा सरकार का आदेश है।” वह आगे बोला- “कोरोना महामारी के चलते सरकार ने ऐसा निर्णय लिया है ताकि हमारे देश में कम से कम कैजुअल्टी हो। क्या आपने रात को समाचार नहीं सुने ?” उसने मां से पूछा।
“वह बोली बेटा हमारे गांव में रात को लाइट नहीं थी। थोड़ा सा मौसम खराब हुआ था कि लाइट चली गई।उसके बाद पूरी रात लाइट नहीं आई। इसलिए मैंने टीवी नहीं लगाया और न ही कोई समाचार सुना।”
उसने बेटे को कहा -“अब आप कैसे घर पहुंचेंगे मेरा दिल घबरा रहा है। “
बेटे ने कहा- “मम्मा घबराओ मत कोई न कोई हल तो निकल ही आएगा। अभी हम यहीं रुके हैं, देखते हैं अस्पताल वाले क्या कहते हैं। उसके बाद ही कोई निर्णय ले पाएंगे आप फिकर मत करना।”
एक पति की दुर्घटना की चिंता दूसरा यह लॉकडाउन सोच-सोचकर उसका सिर दर्द से फटा जा रहा था। अब क्या होगा उसे कुछ भी समझ नहीं आ रहा था। कहते हैं न आने वाली मुसीबत की छाया पहले ही पहुंच जाती है दरो दीवार से लेकर आदमी के जहन तक।
वह भी किसी अनहोनी की आशंका से भीतर ही भीतर डरने लगी थी।
बेटे के फोन के बाद जब उसने खबरें देखने के लिए टीवी ऑन किया तो वहां का दर्दनाक मंजर देखकर वह सिहर उठी। गरीब लोग शहरों से अपने बच्चों को कंधों पर उठाकर अपने झोलों को घसीटते हुए सड़कों पर चले जा रहे थे। कई लोगों को मकान मालिकों ने अपने घर से निकाल दिया था। बहुत ही भयानक मंजर था कोई भी संवेदनशील व्यक्ति देखकर रो उठता।
अब टीवी पर ये दृश्य देखकर तो उसे और भी चिंता सताने लगी थी डर लगने लगा था कि बेटा व पति कैसे वापस घर पहुंचेंगे। फिर दोपहर में बेटे ने फोन किया कि हमें अस्पताल वालों ने छुट्टी दे दी है और अस्पताल से चले जाने के लिए कह दिया है। सारे मरीज अपने-अपने घर जाने की कोशिश में जुटे हैं। हम भी जैसे कैसे घर आने की सोच रहे हैं। आप चिंता मत करना कह कर बेटे ने फोन काट दिया।
चारों ओर खौफ का सन्नाटा पसर आया था। ऐसे लगता था लोगों ने अपने घरों के दरवाजे बंद कर लिए हों। शमशान घाटों पर सामूहिक जलती लाशें, इटली और अमेरिका में हजारों लोगों की मौत के दृश्य टीवी पर दिखाए जा रहे थे। इससे यह खौफ और भी बढ़ रहा था।
तीन दिनों बाद वे पैदल चलते हुए पंजाब की सीमा को लांघकर हिमाचल की सीमा में आ गए थे। बेटे ने उसे फोन कर बताया कि उन्हें वहां यह कहकर रोक लिया गया है कि आपको यहां क्वॉरेंटाइन में एक सप्ताह गुजारना होगा। उसके बाद आपका कोरोना टेस्ट किया जाएगा यदि आप स्वस्थ पाए गए तो आपको घर भेज दिया जाएगा।
वहां स्कूल में उनके साथ कई लोग आ गए थे और कुछ आ रहे थे। वे सभी बड़ी मुश्किल से दूसरे राज्यों से पैदल चलकर यहां तक पहुंचे थे। सबको अपने घर पहुंचने की जल्दी थी।सभी इस दुख की घड़ी में अपने परिवार के साथ रहने को आतुर थे। परंतु उन्हें क्या पता था कि उन्हें घर पहुंचने से पहले ही यहां रोक लिया जाएगा। उन्हें यहां एक और अग्नि परीक्षा से गुजरना पड़ेगा।उनको रोकने के लिए पुलिस बल लगाया गया था और एक-एक आदमी का डाटा शासन व प्रशासन को दिया जा रहा था।
सरकारी स्कूल में उनके रहने का प्रबंध कर दिया गया था। उनके लिए रोटी का प्रबंध भी सरकार ही कर रही थी। सरकारी कर्मचारी उन्हें सुबह दोपहर तथा शाम को खाना पहुंचा जाते थे। खाना बांटने का तरीका इतना बुरा था की उन्हें लगता कि इससे अच्छे तरीके से तो घरों में कुत्तों को रोटी खिलाई जाती है। परंतु मरता क्या न करता, उन्हें अपनी नियति को समय के अनुसार स्वीकारना ही था। कर्मचारी आते दूर ही रोटियां रख कर चले जाते और वे खुद रोटियां उठाकर ले जाते और कमरों में खाते। उन सब के जीवन का यह एक कड़वा और पहला अनुभव था।
एक-एक कमरे में पांच -पांच छः -छ लोग ठहराए हुए थे। कामन टॉयलेट ही सबके लिए उपलब्ध थे। यहां एक दूसरे से दूरी बनाकर रहना बहुत ही मुश्किल था। फिर भी राम भरोसे सब इस समय को काट रहे थे। बस यही सोचकर की एक सप्ताह बाद टेस्ट ठीक आ जाएं ताकि हम अपने घर जा सकें। रोज बेटा सुबह शाम फोन करता और उसे ये सारी बातें बताता।
इस तरह छः दिन बीते तो उनके टेस्ट हुए। शाम को रिपोर्ट आई तो उनमें से एक व्यक्ति कोरोना पॉजिटिव पाया गया। अब साथ रहने वाले सभी लोगों को फिर से घर जाने सेरोक लिया गया। अब उन्हें पांच दिन और रुकना था दूसरे टेस्ट तक। एक व्यक्ति की वजह से वे फिर वहीं रोक लिए गए थे। कितना अजीब था। परंतु कोई कुछ नहीं बोल सकता था।
सब शासन- प्रशासन के हाथ था। हर व्यक्ति खुद को निहत्था और लाचार समझ रहा था।
इसी दौरान उसकी बेटी के ससुराल से फोन आया। उसकी बेटी की डिलीवरी ड्यू थी। पहली डिलीवरी थी। वह प्रसव पीड़ासे जूझ रही थी। अस्पतालों का सारा ध्यान कोरोना की तरफ था। गाड़ियां बंद थीं। क्षेत्र में मात्र एक अस्पताल था वह भी गांव से लगभग पचास किलोमीटर दूर था। प्रसव पीड़ा से जूझ रही उस लड़की को ले जाते तो कहां ले जाते। और यह भी सच था कि कोई भी डॉक्टर मरीज को हाथ लगाकर छूने तक को तैयार नहीं था। वे जाते तो कहां जाते।
बहुत ही कठिन समय था। वह भी बेटी के ससुराल उसके पास नहीं जा सकती थी। क्योंकि पुल के पार दूसरा राज्य था, और वहां पुल पर पुलिस का पहरा लगा हुआ था। जो कोई पुल को पार करने की कोशिश करता पुलिस उसे पकड़कर सात दिनों के लिए क्वॉरेंटाइन में भेज देती। दूसरे दिन सुबह- सुबह बेटी के ससुराल से फोन आया कि आपकी बेटी व बच्चा दोनों चल बसे हैं।
उसके ऊपर दुखों का पहाड़ टूट पड़ा था। रो-रो कर उसका बुरा हाल था। घर में अकेली थी। कोई भी उसे सांत्वना देने वाला नहीं था। गांव वाले दूर-दूर से ही बातचीत करते। कोई भी आंगन तक आने को तैयार नहीं था। सभी दूरियां बना रहे थे। यह कैसी विडंबना है, कैसा समय आ गया है। उसे कुछ भी समझ नहीं आ रहा था।
वह जैसे बिखर – बिखर कर टूटने लगी थी। पशुओं के लिए अब न चारा था और न ही खाने के लिए घर में आटा था। फिर सरकार ने राशन देने की घोषणा की तो गांव वाले उसके हिस्से का आटा ले आए और उसके घर छोड़ गए। अब उसके पास रोटी का प्रबंध तो हो गया था परंतु पशुओं के लिए चारा फिर भी नहीं था। इसलिए उसने एक भैंस दो गाय और कुछ भेड़ -बकरियां जो उसकी एक तरह से पूंजी थीं , सबको घासनियों की तरफ छोड़ दिया। कम से कम वे अपना पेट तो भर लेंगे। अगर बच जाएंगे तो बाद में ले आएंगे नहीं तो कोई बात नहीं। यह सोचकर उसने अपने मन को समझा लिया।
अभी वह उसे बेटी के दुख से जूझ ही रही थी तो बेटे का फोन आया-” पापा को कोरोना हो गया है ; उसे अस्पताल भेज दिया गया है।” फिर तीन दिन बाद फिर बेटे का फोन आया कि उनकी मृत्यु हो गई है। कोरोना पेशेंट की डेड बॉडी घर को नहीं दी जाती इसलिए उनका अंतिम संस्कार भी वहीं पुलिस ने कर दिया गया है। घरवालों को सिर्फ सूचित किया गया था। और फिर दोनों मां बेटा फोन पर फफक फफक-फफक कर रोने लगे।
यह उसके लिए दूसरा सदमा था। जवान बेटी की मौत और पति की मौत को उसने किस तरह सहा यह तो वही जानती है या फिर ईश्वर। वह आंगन में बैठकर दिन रात रोती – सिसकती रही। उसे समझ नहीं आ रहा था कि यह सब क्या हो रहा है? वह किस अभिशाप का दंश झेल रही है।
अभिनव बीस दिन बाद वहां से ऐसे छूटा जैसे कोई कैदी छूटकर आता है। घर पहुंचा तो वह इतने गहरे सदमे में थी कि वह भी शीघ्र ही इस दुनिया से विदा हो जाएगी। परंतु बेटे के घर आने पर उसे थोड़ी सी आस बंधी थी। कहते हैं दुख की घड़ी में कंधे पर हाथ रखने वाला भी बहुत बड़ा सहारा होता है। अब बेटे के आने से इस दुख में मां बेटा दोनों एक दूसरे का सहारा हो गए थे।
इस कोरोना महामारी ने न जाने कितने ही घरों की नीवें हिला दी थीं। कई बसे बसाए घर इस महामारी की भेंट चढ़ गये थे। जिसकी कभी किसी ने कल्पना तक नहीं की थी।
इस तरह रोते -सिसकते पल -पल करते चार साल बीत गए। परंतु न पीड़ा कम हुई और न ही सदमा। कहते हैं वक्त हर एक जख्म का मरहम होता है परंतु कुछ जख्म ऐसे होते हैं जो वक्त के साथ भी नहीं भरते। बस आदमी उनके साथ जीना सीख जाता है।
वह उस शाख की तरह हो गई थी जो आंधी में पेड़ से टूट तो गई थी परंतु न तो पूरी तरह सूखी थी और न ही हरी रही थी। इस आंधी के बाद बेशक दुनिया फिर से रफ्ता – रफ्ता चलने लगी थी परंतु अब उसे खुद के लिए नहीं बेटे के लिए जीना था। जो अभी जवानी की दहलीज़ पर था। उसे कहीं रोजगार में लगते हुए देखना था और उसकी बसती हुई घर- गृहस्थी को अपने हाथों से सजाना – संवारना था।वह आंगन में बैठी -बैठी न जाने कब अतीत की इन दुखद स्मृतियों में डूब गईथी उसे पता ही न चला। सारी घटनाएं एक रील की भांति उसके मानस पटल पर आ जा रही थीं।
जब वह इन स्मृतियों से वापस लौटी तो उसकी पलकों पर आंसुओं की बूंदे तिर आईं थीं।
उसने अपने दुपट्टे के पल्लू से इन बूंद को पलकों से हटाया और अगल-बगल देखा। उसके अगल-बगल अंधेरी रात का कंबल बिछ आया था। वह उठकर अंदर चली आई और अपने व अपने बेटे के लिए रात का खाना बनाने में जुट गई।
— अशोक दर्द