लघुकथा – वो कागज की कश्ती
“बारिश के दिनों में बचपन में हमने कागज की नाव खूब चलाये हैं। बड़ा मजा आता था। तब हम नाव के पीछे-पीछे दौड़ते थे।” बुआ स्वीटी को बता रहीं थीं।
“अच्छा बुआ, ये नाव कैसी दिखती है?”
स्वीटी का यह प्रश्न सुनकर बुआ चौंक गईं। उन्होंने स्वीटी की मम्मी से पूछा-“भाभी जी, क्या सचमुच स्वीटी ने आज तक कोई नाव नहीं देखी?”
“हाँ,क्या है हमें कभी नदी ,तालाब में जाने का अवसर ही नहीं मिला। अब इस कांक्रीट पत्थर के शहर में नदी तालाब और नाव मेँ कहाँ से लाऊं। हाँ, घूमने जाने के नाम पर मार्केट, मॉल और पार्क इसे घुमा लाते हैं।” भाभी ने आगे कहा,”दीदी, अब कागज की नाव बारिश में चलाने की किस बच्चे को फुर्सत है?आज के बच्चे मोबाईल एप में बिज़ी हो गए हैं और आज की माएं अपने बच्चों को बारिश में भीगने से परहेज करती हैं।ऐसे में तो लगता है कि कागज की नाव अब कागजों में ही रह जायेगी।”
भाभी की यह बात सुनकर बुआ के कानों में जगजीत सिंह की वह गज़ल गूँजने लगी-“मगर मुझको लौटा दो बचपन का सावन।
वो कागज की कश्ती, वो बारिश का पानी।”
और बुआ उदास हो गईं।
— डॉ. शैल चन्द्रा