कविता

भूतकाल का भूत

भूतकाल के भूतों ने
हमको बहुत सताया है,
डरने के कारण अपने
हिस्से ठेंगा आया है,
आभासी कच्चे चिट्ठों पर
आज भी करते भरोसा है,
टूटता रहता यकीं अपना
मिलता केवल धोखा है,
किसी के लिए धंधा ये सब
पर हमने बहुत गंवाया है,
डर डर सब लुटाया हमने
कोई थैली भर भर पाया है,
भूतकाल के भूतों का
शौक देखो मचल गया,
देखने का भाव अब
ऊंची नीची जाति में बदल गया,
तब के समय के सारे नियम
अब भी देखो लागू है,
अश्पृश्यता, हिंसा, लिंचिंग
करके ये बन जाते साधु है,
अब भी मन में मैल भरा
जिसे नहीं ये धोते हैं,
आगे निकल गया दमित
तो खून के आंसू रोते हैं,
सदनीयत से जब भी कोई
संविधान लागू कराएगा,
भूतकाल का भूत फिर तो
सरपट भागा जाएगा।

— राजेन्द्र लाहिरी

राजेन्द्र लाहिरी

पामगढ़, जिला जांजगीर चाम्पा, छ. ग.495554