कहानी

कहानी- आँखों में बसी हुई चाँदनी सी

स्कूल की जिंदगी की कहानी कुछ और होती है, कुछ कहानी दूर तक सफर तय करती है तो कुछ सिमट कर वहीं की वहीं रह जाती है, अपने आप में। किंतु दूर की राह तय करती कहानी अपनी अलग पहचान छोड़ जाती है। शेखर ने हाई स्कूल में दाखिला लिया तो क्लास नौ से दस तक जाते-जाते न जाने कितने नये-पुराने साथी आए, और तो और कितने हृदय के इतने समीप आ गये कि उन्हें एक दूजे से मिले बिना रहा नहीं जाता। उसी में कुछ लड़कियाँ भी साथी से कम नहीं थी। सबसे मिलना क्लास में एक संकोच के साथ मर्यादा का भी ध्यान रख कर होता था। लेकिन छुट्टी के बाद चार किलोमीटर की दूरी कैसे कट जाती, किसी को कुछ पता भी नहीं चलता। शेखर की दृष्टि में बसी उसी में एक देवमुनि नाम की लड़की थी। अब आप इस कहानी को छिलिएगा मत कि कहानी में लड़की क्यों आ गई, आगे बढ़ने दीजिएगा। जिंदगी है तो लड़की और लड़के आएंगे ही। जिंदगी की कहानी में मूढ़ मति की जरूरत नहीं है। यह आप पक्का जान लीजिए। शेखर की दृष्टि उस पर पड़ती की वह मुस्कुरा जाती। और शेखर कुछ खुल नहीं पाता। यह उन दोनों का नैसर्गिक लगाव था। पांखी की आँखों में बसती छवि-सी।
जैसे मनभावन हवा आई और वह उसकी शीतलता महसूस कर रह जाता। हवा होती क्या है? एक दूजे से संपर्क जोड़ देती है। पूरब से आई तो एक को छू कर दूजे के अंतर्मन को छू गई और पश्चिम से गई तो दूजे को छू कर एक के अंतर्मन को छू गई। सुख में भी और दुख में भी। हवा है कि आँखों में बसा देती है प्रीत। घनघोर प्रीत।
परीक्षा चल रही थी कि क्लास में परीक्षा- संचालक ने कहा- “शेखर,‌ तुम परीक्षा छोड़ कर इन लोगों के साथ चले जाओ।” इतना सुनते सभी स्तब्ध रह गए कि सर शेखर को ऐसा क्यों कह रहे हैं।
“सर, मुझे लिखना अभी बाकी है।” शेखर ने निवेदन भरे स्वर में कहा।
“परिस्थिति समझो शेखर, तुम जाओ।” परीक्षा संचालक का कम ही शब्दों में यह बहुत ही गंभीर और दुख से भरा आदेश था। शेखर परीक्षा छोड़ कर चला गया।
देवमुनि ने परीक्षा संचालक से पूछा- “शेखर के साथ ऐसा क्या हुआ, सर?”
“उसके सिर से उसके पिता की छाया चली गई, बेटी।”
“सर?” देवमुनि सिहर सी गई और आगे कुछ बोल नहीं सकी क्योंकि उसके पास अब कोई शब्द नहीं थे। पिता तो जिंदगी में वृक्ष जैसा होता है। वृक्ष नहीं तो छाया नहीं। आखिर कैसे और कहाँ रहेगा शेखर।
“परिस्थिति कभी भी किसी को अपनी चपेट में ले सकती है, बेटी। बेटी लगता है यह दुख जैसे शेखर का नहीं बल्कि तुम्हारे हो?”
इतना सुनते देवमुनि को लगा कि वह तिलमिला उठी। जैसे यह दुख शेखर का ही नहीं बल्कि उसकी भी अपनी व्यथा हो। और मन-ही-मन वह कह गई कि शेखर से हम बँटे कहाँ हैं।
शेखर अब अपनी जिंदगी के दूसरे मोड़ पर खड़ा था। पिता के रहते सभी लोग उसके अपने थे लेकिन उजड़े चमन की सुध लेने वाला कोई नहीं। फुआ के गाँव में रहकर वह कॉलेज करने लगा। उसी गाँव में एक डॉक्टर की सहानुभूति मिल गई उसे कि आप हमारे बच्चों को अपने खाली समय में पढ़ाइए- लिखाइए, आपको हम आर्थिक मदद करते और दवा देने के लिए भी बताते रहेंगे। जिंदगी की गाड़ी धीमी गति से ही सही अपनी राह पर चल पड़ी।
शेखर का चार वर्ष बीतने लगा फुआ के गाँव में डॉक्टर के साथ रहते। उस इलाके के लोग भी शेखर के लिए अपने हो गये।
“अब आप अपने काम के लिए जाने जाते हैं।” डॉक्टर ने शेखर की प्रशंसा करते हुए कहा।
“यह सब आपकी देन एवं आशीर्वाद है, सर।” शेखर ने सभी सफलता का श्रेय उनका देते हुए कहा।
“आदमी की नम्रता छिनी हुई संपत्ति प्राप्त कर लेती है, चाहे प्रकृति से हो या आदमी से। नम्रता से बढ़कर कुछ चीज नहीं है, इस संसार में।”
“आपका हौसला मुझे गिरने नहीं देता, सर।”
“एक गाँव में चलना है।”
“अभी?”
“हाँ, अभी और इसी समय?”
“तब चलिए ना, सर।”
“चलिए।”
शेखर और डॉक्टर दोनों एक साथ चल दिए, अपने गाँव की बगल के गाँव में पेसेंट देखने के लिए। यही कोई आधा घंटा लगा होगा। दोनों पहुँच गए उस गाँव में। घर खप्परैल का था। दरवाजे से एक लड़का अंदर गया और उस घर के लोगों को उन दोनों के आने की सूचना दी। घर वाले उन दोनों को आदर से अंदर ले गए। चहारदीवारी के भीतर चार घर विद्यमान थे। घर का आंगन बड़ा था। आंगन में खाट पड़ी थी। और उस पर अपने हिसाब का बिछावन। साड़ी में एक महिला आई। जिसकी तबीयत खराब थी। जब सामने से घूंघट हटाई तो वह अचंभित हो गई। क्योंकि उसके सामने कोई और नहीं चार वर्ष पहले परीक्षा हॉल से पिता की छाया उठ जाने पर चले जाने वाला शेखर खड़ा था। उस समय देवमुनि तिलमिला कर रह गई थी। इस बार तो उसकी याद की दुनिया में बिजली कौंध गई। यह नैसर्गिक प्रेम की आत्मिक आवाज थी। उसने शेखर से कहा- “आप?”
“हाँ, मैं,।” शेखर ने भी उसे पहचान लिया।
“कैसे हैं?” फिर देवमुनि ने सवाल किया। आत्मिक भावना और प्रगाढ़ हो गई थी।
“विशुद्ध और तुम?”
“आपकी आँखों में बसी हुई चांँदनी सी।”
“सच?”
“हाँ, बिल्कुल सच, आदमी अपनी जिंदगी में बहुत कुछ पाकर भी अधूरा सा रह जाता है, लेकिन समझदार के लिए उसकी आँखों में बसी हुई चाँदनी काफी होती है, उसकी जिंदगी की वह सारी संपत्ति भी होती है, होती है न? बोलिए आप।” देवमुनि क्या कहना चाह रही है शेखर को उसकी सभी बातें समझ आ गई और उसने स्वीकार करते हुए बोला- “हाँ, होती ही है।”
“इस गाँव के इस घर में मेरे नसीब ने खिंच कर लाया है।”
“घर वाले अच्छे हैं न?”
“हाँ, बहुत अच्छे हैं।”
“तबीयत कैसे बिगड़ गई?”
“शायद इसी बहाने आपसे मिलना था।”
“जानती नहीं हो गाँव के लोग ऐसी बात को अन्यथा में लेते हैं।”
“जानती हूँ, लेकिन इस घर के सभी परिवार शिक्षित हैं। गंवार नहीं हैं। जिंदगी क्या है, वह किस-किस मोड़ और कैसी परिस्थिति से गुजरती है यह सब कुछ पता है उन्हें।
“जिंदगी में बहुत कम लोग ऐसे मिलते हैं। अच्छा छोड़ो काम की बातें करो, सर का कहना है कि तुम्हें इंजेक्शन देना होगा।”
“लेंगे, दुख के क्षण में खुशी से लेंगे। अपना शेखर आज भी वही शेखर है जो कल तक मेरी दृष्टि में बसा था, उसने कभी कुछ मांगा नहीं था, मुझसे। जब उस समय कुछ नहीं मांगा था तो आज क्या मांगेगा वह। निश्चिंत हूँ शेखर से। निश्चिंत हूँ, शेखर आज मुझे जीवन देने आया है, जीवन से कुछ लेने नहीं। मैं शेखर को कुछ दे भी कहाँ रही हूँ ?”
“तेरे कहे सभी शब्द मेरे जीवन के लिए संबल स्तंभ जैसे हैं।”
“अब नदी के दोनों तट किसी भी परिस्थिति में ढहेंगे नहीं।”
“हाँ, नहीं ढहेंगे, कभी भी नहीं ?”
“ऐसे पवित्र रिश्ते बहुत ही कम मिलते हैं।”
डॉक्टर कहते थक नहीं रहे थे।
“आँखों में बसी हुई चाँदनी-सी नहीं?” देवमुनि ने डॉक्टर से खुले स्वर में पूछा।
“नैसर्गिक प्रेम और वैवाहिक जीवन में कोई विरोधाभास भी तो नहीं है। क्योंकि एक आकाश गंगा है तो दूसरा गंगा, अर्थात नैसर्गिक प्रेम की छवि बिल्कुल आँखों में बसी हुई चाँदनी-सी है।”
संशय के सारे भ्रम टूट गये थे।

— विद्या शंकर विद्यार्थी

विद्या शंकर विद्यार्थी

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