कविता

गांव का पेड़

रह गया गांव का पेड़
वहीं उसी जगह गांव में,
बस,ट्रक,ट्रेन,नाव व
जहाज की सफर कर
फल पहुंच गए शहर
गगनचुंबी कंक्रीटों के छांव में,
गांव के पेड़ आज भी कर रहे
अपने वादे पूरे,
नहीं तोड़ा भरोसा,
नहीं छोड़ रहे अधूरे,
तोड़ रहा फल
बच्चा,बुजुर्ग,किसान,मजदूर और
पल पल रखवाली करती महिलाएं,
डंटे रह दूर करती वृक्ष की बलाएं,
जो सिर्फ अकेले नहीं खाते कोई फल,
मिलकर खा रहे आज व कल,
जो लेकर चंद कागज के टुकड़े
शहर वालों के जायका व तिजारत के लिए,
जो महसूस नहीं कर पाते
थोड़ा सा अपनत्व और लगाव,
फिर पका डालते है रातों रात
रासायनिक क्रिया या हत्या कर
उस फल की,
फिर इंतजार करते हैं तिजारती कल की,
चिंता करते हुए
खुद की, बीबी बच्चों व आलीशान महल की,
जी हां पेंड़ कभी नहीं जाते शहर
और भेज देते हैं अपने जिगर के टुकड़े
जद्दोजहद कर पल पल बिकन
चल पड़ता है खरीद फरोख्त होने।

— राजेन्द्र लाहिरी

राजेन्द्र लाहिरी

पामगढ़, जिला जांजगीर चाम्पा, छ. ग.495554