उतर आया धरा सावन
उतर आया धरा सावन, जरा दिल खोल आने दो।
धरा प्यासी ज़माने की, पिपासा को बुझाने दो।
उठा है दर्द मिलने का, रही बेचैन यह कब से,
गगन की प्रीत धरती से, इसे दिल से लगाने दो।
मचा है जोश जो दिल में, बना है मेघ का गर्जन,
तड़ित की रोशनी ले के, चला धरती जगाने को।
भरी हैं नेह से बूंदें, भरा है जोश बांहों में,
लगा सावन बहारों का, चला मन प्रेम लुटाने को।
कहाँ मिलते इन्हें देखो, रहें इजहार नित करते,
यही ऋतु है सुहानी अब, दिवाने दिल जताने को।
लिया अब ओढ़ आंचल है, धरा दुल्हन नवेली सी,
खड़ी बांहें पंसारी है, पिया अम्बर मनाने को।
अंधेरा खूब छाया है, घने मेघा करें पर्दा,
बड़ा खामोश आलम है, चला सजनी रिझाने को।
नजारा शिव निराला है, निराली खेल कुदरत की,
रहो मिल के सदा तुम भी, यही आता बताने को।
— शिव सन्याल