ग़ज़ल
अब सुबह उठते ही मंदिर मैं चली आऊँगी
देख उनके लिए प्रसाद मैं ले आऊँगी।।
जो गरीबी में पले बढ़े दिखते उनको।
आज उनको भी कमाना मैं सिखा आऊँगी।।
नेकनीयती से सभी काम करें अब मिलकर।
ऐसा नुस्खा ही मैं उन्हें बता आऊँगी।।
अब मुहब्बत न करो इश्क़ की बातें छोड़ो।
नव निर्माण करने उन्हें जगा आऊँगी।।
हों भरे क॔टक राहों मे तुम्हारी देखो।
संग उनके चल काँटे को हटा आऊँगी।
भेदभाव करते लड़ते जो मरते ही हैं।
आईना उनको दिखाऊँगी चली आऊँगी
जो बने दुश्मन देखेगा यह ज़माना उनको।
साथ सबके मैं हाथ दोस्ती का बढ़ा आऊँगी।।
— रवि रश्मि ‘अनुभूति’