ग़ज़ल
मुस्कुराहट और खुशी है हर तरफ।
कोई तो फिर भी कमी है हर तरफ।
मौत के ड़र से उबरकर देखिये,
ज़िंदगी ही ज़िंदगी है हर तरफ।
एक पल, इक दिन, महीना, साल क्या,
इक सदी बिखरी पड़ी है हर तरफ।
गर्म सहरा और बवंडर, आँधियाँ,
रेत की सूखी नदी है हर तरफ।
साथ मौसम के बदलती जाएगी
वो शकल जो मौसमी है हर तरफ।
पास में पानी मुहब्बत का रखो,
आग नफ़रत की लगी है हर तरफ।
शेरियत बस जय नज़र आती नहीं,
यूंँ लबों पर शायरी है हर तरफ।
— जयकृष्ण चांडक ‘जय’