कविता

फुर्सत

फुर्सत ही तो नहीं हैआजकल हमें, आप या लोगों को,क्योंकि बड़े आधुनिक जो हो गये हैं हम ।फुर्सत नहीं है की आड़ मेंसबसे दूर होते जा रहे हैं हमसंस्कार, सभ्यता भूलते जा रहे हैं हम।हमारी संवेदनाएं मरती जा रही हैंअपने भी आज अपना कहें भी तो किसेखुद ही समझ नहीं पा रहें अब,एकल परिवारों और सोशल मीडिया नेइस समस्या का ईजाद किया है,साथ साथ रहते हुए भीएक दूजे को दूर कर दिया है।बूढ़े बुजुर्ग बेगाने हो रहे हैं,पारिवारिक सदस्य भी अब अंजाने लग रहे हैंदांपत्य जीवन में भी रिश्तों का भाव मर रहा हैस्वार्थ की आड़ में हर रिश्ता समय पास कर रहा है।औलादों को दोष तो हम सब देते हैंपर ईमानदारी से बताइएहम,आप आज उन्हें कितना समय देते हैं?सच तो यह है कि अपने बच्चों सेहम आप ही उनका बचपन छीन रहे हैंफुर्सत नहीं मिलती की आड़ मेंउनके जीवन में हम आप ही जहर घोल रहे हैं।जब हमारे पास अपनों के लिए ही फुर्सत नहीं हैतब अपनों से यही शिकायत हम आखिर क्यों कर रहे हैं?फुर्सत कहाँ और कब हमें आमंत्रण देता हैफुर्सत हमें खुद तलाशना पड़ता है फुर्सत को सम्मान देना पड़ता हैतब फुर्सत भी हमारा बगलगीर होता है।हमारी पिछली पीढ़ियांहमसे कम व्यस्त या कम जिम्मेदार तो नहीं थीं,तब इतनी सुख सुविधाएं भी तो नहीं थीं,हाँ ये और बात है कि वो आधुनिक नहीं थेशायद इसीलिए लिए हमसे ज़्यादाव्यवहारिक, संवेदनशील और मानवीय थेअपनों को अपने करीब रखते थेसंस्कार सभ्यता हमसे बहुत ज्यादा था उनमेंमाँ, बाप, बुजुर्गों, परिवार की खुशी की फ़िक्र थी उन्हेंफुर्सत उन्हें भी कभी नहीं रही जनाबफिर भी वे फुर्सत निकाल लेते थे,उसके लिए उनके अपने बहाने होते थे,और हम फुर्सत नहीं है के नये नये बहाने गढ़ने में बड़ी शान समझते हैंऔर दोष फुर्सत की आड़ में व्यस्तता को देते हैंक्योंकि हम आधुनिकता के रंग में रंगते जा रहे हैं,अपने ही पुरखों को बेवकूफसाबित करने की एक दूजे से होड़ कर रहे हैं।

*सुधीर श्रीवास्तव

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