ग़ज़ल
खड़े थे खाई के आगे न बढ़ने की पड़ी हिम्मत
अंधेरी रात थी इतनी कुआँ भी पीछे गहरा था
शिकायत किससे करते हम और होती कैसे सुनवाई
वहां का राजा अंधा था जहां हाकिम भी बहरा था
मगर वापस चले जाने में भी उलझन गजब की थी
दिए की रोशनी कम थी लगा पहरे पे पहरा था
बहुत सोचा चले जाएं हम कर ले वापसी अपनी
मगर हिम्मत बढ़ाने को वही पुरनूर चेहरा था
नहीं अब देखना मुड़कर तुम्हें चलते ही जाना है
बढ़ाने के लिए हिम्मत वही सपना सुनहरा था
— डॉक्टर इंजीनियर मनोज श्रीवास्तव