वर्षा
वर्षा आई,
मन में कितने
रोष लिए,
आसमां ने हवाले
कर दिया ज़मीन के,
और उसने
सींच दिया अपने दुखों से
पेड़- पौधे खेत- खलिहान
मैं बचा रही हूं मन में
अपने हिस्से की उदासियां
बरसेंगे बस उसके स्पर्श से
की उसका बंजर मन
मुझे ही सींचना है
नए अंकुर फूटें,
जीने के, बहाने बने
हमें फिर धूप का
इंतजार भी करना है।
— सविता दास सवि
वाह! वर्षा का अप्रतिम मानवीकरण!
सुन्दर प्रस्तुति के लिए बधाई!