गीतिका/ग़ज़ल

भ्रष्ट व्यवस्था

मारकाट, मारामारी है
दिन में छायी अँधियारी है

बढ़ा प्रभाव झूठ का इतना
हुआ सत्य पर ही भारी है

दृष्टि मछलियों पर बगुले की
निगल रहा बारी – बारी है

अतिविश्वासपात्र ने छल से
घर में किया सेंधमारी है

मदिरा – मुर्गा पर बिक जाती
जनता कितनी बेचारी है

भले जेल में बंद आज भी
बाहर चलती रंगदारी है

दाग कुकर्मों के छिप जाते
सेवक धवल वस्त्रधारी है

नरपिशाच घूमते गली में
असुरक्षित प्रति क्षण नारी है

अस्त – व्यस्त – सा लोकतंत्र है
भ्रष्ट व्यवस्था बीमारी है

— गौरीशंकर वैश्य विनम्र

गौरीशंकर वैश्य विनम्र

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