हम जिंदा हैं?
जिस तरह पिछले सौ सालों से लेकर
तीन हजार सालों तक जिंदा थे,
वैसे ही हम आज भी जिंदा हैं,
और अपनी स्थिति पर शर्मिंदा हैं,
मानाकि पहले हम बोल नहीं सकते थे,
मुंह खोल नहीं सकते थे,
पहले अलग व भयावह स्थितियां थी,
सामाजिक पाबंदियां थी,
मगर आज स्वतंत्र भारत है,
पढ़ने लिखने में महारत है,
फिर भी पड़े हैं हाशिये में,
हमारी चर्चा गैरों के उबासियों में,
क्या हो गया है हमें
क्या सिर्फ उनके मतदाता हैं,
या फिर हमसे ही नफरत करने वालों के
भाग्यविधाता हैं,
ऐसा तब होता है
जब समाज सोता है,
चंद सामाजिक दलालों की
व्यक्तिगत इच्छाएं पूरी करने के लिए
जी जान से लगे रहते हैं,
बदले में सारी परिदृश्यों में दबे रहते हैं,
हम रहते ही क्यों इस कदर उनींदा हैं,
हां हम आज भी जिंदा हैं?
— राजेन्द्र लाहिरी