हे औघड़दानी !
औघड़दानी,हे त्रिपुरारी,तुम प्रामाणिक स्वमेव ।
पशुपति हो तुम,करुणा मूरत,हे देवों के देव ।।
श्रावण में जिसने भी पूजा,उसने तुमको पाया।
पूजन से यह मौसम भूषित,शुभ-मंगल है आया।।
कार्तिके़य,गजानन आये,बनकर पुत्र तुम्हारे।
संतों,देवों ने सुख पाया, भक्त करें जयकारे।।
आदिपुरुष तुम, पूरणकर्ता, शिव,शंकर महादेव।
नंदीश्वर तुम,एकलिंग तुम,हो देवों के देव ।।
तुम फलदायी,सबके स्वामी,तुम हो दयानिधान।
जीवन महके हर पल मेरा,दो ऐसा वरदान।।
कष्ट निवारण सबके करते,तुम हो श्री गौरीश।
देते हो भक्तों को हरदम,तुम तो नित आशीष।।
तुम हो स्वामी,अंतर्यामी,केशों में है गंगा।
ध्यान धरा जिसने भी स्वामी,उसका मन हो चंगा।।
तुम अविनाशी,काम के हंता,हर संकट हर लेव।
भोलेबाबा,करूं वंदना,हे देवों के देव ।।
तुम त्रिपुरारी, जगकल्याणक,महिमा का है वंदन।
बार बार करते हम सारे,औघड़दानी वंदन।।
पर्वत कैलाशी में डेरा,भूत प्रेत सँग रहते।
सुरसरि की पावन जलधारा,आप लटों से बहती।।
उमासंग तुम हर पल शोभित,अर्ध्दनारीश कहाते।
हो फक्खड़ तुम,भूत-प्रेत सँग,नित शुभकर्म रचाते।।
परम संत तुम,ज्ञानी,तपसी,नाव पार कर देव ।
महाप्रलय ना लाना स्वामी,हे देवों के देव ।।
— प्रो (डॉ) शरद नारायण खरे