कविता – गाँव जवार
गाँव जवार भूला सहचार
युवा भुला अपनी संस्कार
कलियुगी रंग में रंगा संसार
जग से रूठा कहाँ छुपा प्यार
दशहरे की वो ग्रामीण मेले
घूमते रहते थे संग या अकले
ना कोई झंझट ना कोई झमेले
कितना मनोरम था वो मेले
बड़े बुर्जुग सिखलाते थे मर्यादा
जीवनचर्या था बिल्कुल ही सादा
ना था दुश्मनी का कोई व्यापार
कितना प्यारा था गाँव जवार
पर अब बदला बदला सा गाँव
हर व्यक्ति चलता है यहाँ दाव
शतरंज का चलता हर कोई चाल
खस्ता हो गया शरीफों का हाल
दादा दादी की होती थी सम्मान
माता पिता थे देवी देवता के समान
घर आँगन था स्वर्ग सा धाम
सब कुछ बदला क्यूँ हे भगवान
होली दिवाली का था यहाँ त्यौहार
हॅंसता खेलता था हर घर द्बार
प्यार मोहब्बत का था जहाँ व्यापार
कलुषित हो गया आज गाँव जवार
— उदय किशोर साह