ग़ज़ल
हमको जीवन का दर्शन बताने लगे
आईने हमको हँसना, सिखाने लगे।
वो छिपाकर के अपने, बगल में छुरी
किस्से गिरिधर- सुदामा के गाने लगे।
जो नहीं जानते,अपने घर का पता
वो ज़माने को राहें, दिखाने लगे।
जब से तोड़ा है, मंदिर को मन मेरे
दीप मंदिर में, हर दिन जलाने लगे।
जब छिपा न सके, नैनों का नीर हम
दर्द गीतों में भर के, सुनाने लगे।
देखकर ईद-होली के मेलों को संग
वो क़फ़न की दुकानें, सजाने लगे।
जल गये हाथ, करते हुए आरती
इसलिए दीप घर के, बुझाने लगे।
जिस पथ पर चले थे, ‘शरद’ साथ तुम
हर निशां उस डगर की मिटाने लगे।
— शरद सुनेरी