लाश में सांस
धीरे-धीरे आप खुद को दूर कर लेते हैं तमाम रिश्तों से
जिनके साथ आप पले बढ़े
क्योंकि वो आपकी मजबूरी बन जाती है
ज्यादा तादाद में सुधार की गुंजाइश कम होती है
आज अकेला कोई सुधरना नहीं चाहता
इस समाज में केवल बचा है
रिश्तों में बदला, ईष्र्या और फरेब
सही ग़लत के फेर में सब स्वाहा हो जाता है
और मुखौटेबाज आपको
खा जाते हैं दिमक की तरह
अब हालात ऐसे हैं जैसे “लाश में सांस”
याद रहे
सब बदल जाता है बिना तोड़े
वादे टूट जाते हैं,
बिना बदले रिश्ते बदल जाते हैं,
हम ज़िंदा रहते हैं और
जीते-जीते कई मौत मरते हैं.
ज़िंदगी यही है.
ज़िंदा रहना और मर जाना
— प्रवीण माटी