कविता

पापा सठिया गया है

इधर जाओ तो रोकना,
उधर जाओ तो टोकना,
जब देखो तब आदेशों का बंधन लगाता है,
हमारी भावनाओं को क्यों समझ नहीं पाता है,
कैसा जमाना आ गया है,
लगता है पापा सठिया गया है,
जितना मांगो पैसा
नहीं कभी उतना देता है,
गर दे दिए किसी बार
पाई पाई का हिसाब लेता है,
नहीं कभी समझता
हमारी भावनाओं को,
दबाकर रखना पड़ता है
अपनी कामनाओं को,
अभी भी मानता है हमें छोटा बच्चा,
क्यों सोचता है अब भी अकल का कच्चा,
रोक रोक टोंक टोंक कान पका गया है,
लगता है पापा सठिया गया है,
डांटता है मारता है,
कभी नहीं दुलारता है,
रोज सुबह हमको जल्दी उठाता है,
फिर भी न उठें तो भाषण सुनाता है,
कोई नहीं समझता मैं कितना सह रहा हूं,
सिर्फ मां के खातिर इस घर में रह रहा हूं,
बक बक और झिक झिक कर
मेरा दिमाग खा गया है,
लगता है पापा सठिया गया है।

— राजेन्द्र लाहिरी

राजेन्द्र लाहिरी

पामगढ़, जिला जांजगीर चाम्पा, छ. ग.495554