सामाजिक

विज्ञापन : विश्वास से बकवास तक का सफर

विज्ञापन भी जीवन का एक आवश्यक अंग है। विज्ञापन के द्वारा हमें पता चलता है कि कौन सी वस्तु या सेवा उपलब्ध है। और हमें इसका लाभ कैसे मिल सकता है। 50 और 60 के दशक में विज्ञापन सिनेमाघर में ,सार्वजनिक स्थानों पर जैसे रेलवे स्टेशन बस स्टैंड बाजार या बताकर या ढोल बजाकर नगाड़े बजाकर प्रचारित कर दिए जाते थे। सिनेमा के पर्दे भी विज्ञापन के लिए बहुत इस्तेमाल किए गए । समाचार पत्रों और पत्रिकाओं का भी यहां भरपूर इस्तेमाल किया गया। संचार माध्यम से सबसे पहले हम लोग रेडियो सीलोन पर विज्ञापन सुना करते थे ,नई फिल्मों के बारे में भी बताया जाता था, सन 70 के दशक में विविध भारती ने भी विज्ञापन सेवा प्रारंभ की। विविध भारती के विज्ञापन सेवा में समय-समय पर यह घोषणा की जाती थी कि अगर आप समझते हैं की विज्ञपित वस्तु के बारे में जो बात बढ़ा चढ़ा कर कहीं गई है वह सच्चाई से मेल नहीं खाती, तो इसके बारे में हमें बताएं. मैं कह सकता हूं कि उन दिनों के विज्ञापन सच्चाई से भरपूर् और उसमें वस्तु विशेष की सही जानकारी दी जाती थी

आजकल विज्ञापन का सबसे बड़ा साधन है टेलीविजन के चैनल। आप टेलीविजन के किसी भी चैनल पर कोई भी कार्यक्रम देख ले उसमें विज्ञापन ही भरपूर रहते हैं। लेकिन आजकल के विज्ञापन सच्चाई से बिल्कुल दूर है मुझे तो बिल्कुल बकवास लगते हैं. जो दिखाया जाता है यह बताया जाता है और उसका उस वास्तविक वस्तु से कोई संबंध ही नहीं होता। और ऐसा लगता है कि वह आम जनता को बेवकूफ बना रहे है. आजकल के विज्ञापनों में बड़े-बड़े सितारों कलाकारों खिलाड़ियों और ऐसे ही कई व्यक्तियों के द्वारा प्रचार किया जाता है यह ब्रांड एंबेसडर बनकर बड़ी मोटी रकम वसूल करते हैं आखिर यह जो पैसा बाद में हमारी जेब से ही जाता है। कुछ विज्ञापनों में तो अश्लीलता भी दिखाई जाती है और साथ में यह वास्तविकता से बहुत दूर होते हैं। आप इस पर विचार करें और अपनी समझ से खरीदने से पहले इन सब बातों का ध्यान रखें।

जय प्रकाश भाटिया

जय प्रकाश भाटिया जन्म दिन --१४/२/१९४९, टेक्सटाइल इंजीनियर , प्राइवेट कम्पनी में जनरल मेनेजर मो. 9855022670, 9855047845