संन्यासी कौन?
आज मेरे पास मोबाइल पर काॅल आया। काॅल करने वाली देवी जी ने केन्द्र भारती में प्रकाशित मेरे आलेख की प्रशंसा की। अच्छा लगा। प्रशंसा किसको अच्छी नहीं लगती? जो प्रशंसा और निंदा की भावना को समान रूप से ले सकूं, वैसी स्थिति प्राप्त करने के लिए प्रयासरत हूँ। अभी तक प्राप्त नहीं कर सका हूँ। उनका परिचय जानना चाहा, तो उन्होंने अपना नाम बताते हुए अपने आपको संन्यासिन बताया। तभी से मेरे मस्तिष्क में प्रश्न उठा, ‘संन्यासी या संन्यासिन मतलब क्या? संन्यासी या संन्यासिन का एक पद है क्या? जिसके आधार पर अपना परिचय दिया जाना चाहिए? संन्यासी एक कैरियर है क्या? या संन्यासी एक पेशा है? आखिर यह है क्या? क्यों कोई अपने आपको संन्यासी कहता है या संन्यासी दिखने के प्रयत्न करता है?
मैं बचपन से ही संन्यास और संन्यासी के प्रति आकर्षित रहा हूँ। बचपन में मेरे पिताजी के पास गेरुआ रंग के कपड़े पहने जो भी सज्जन आते थे, उन्हें मैं संन्यासी मान लेता था। जैसे-जैसे कुछ पढ़ा-लिखा, कुछ अनुभव मिला। यह समझ आया कि कपड़ों के रंग और संन्यास में कोई संबन्ध नहीं है। यह एक मान्यता और प्रदर्शन मात्र है। हाँ! भारतीय जनमानस में यह बात बैठी हुई है कि भगवा रंग मतलब संन्यासी। बहुतायत में ऐसे लोग भी मौजूद हैं, जो इस विषय पर किसी प्रकार की समालोचनात्मक चर्चा को धर्म से जोड़कर विरोध करना शुरू कर देते हैं। एक प्रकार से वितण्डावाद प्रारंभ हो जाता है।
केरल प्रदेश की एक मेरी मित्र थीं। वे स्वामी विवेकानन्द जी की बहुत चर्चा करती थीं। जब उनसे कुछ निकटता हुई तो मैंने स्वामी विवेकानन्द जी का हवाला देकर अपने आचरण में उनकी कुछ विशेषताओं को उतारने की बात कीं तो उनका स्पष्ट कहना था, ‘मैं स्वामी विवेकानन्द की संन्यासी की भूमिका की और आकर्षित थी। इसका यह अर्थ बिल्कुल नहीं है कि मैं संन्यासिन बन जाऊँगी। मैं अपनी आकांक्षाओं और कामनाओं को दफन कर दूँगी!’ वास्तव में अपनी कामनाओं, इच्छाओं, अपने अहं, पद, यश, धन, और संबन्धों के लिए चाह का त्याग करना ही तो संन्यास है। वस्तुओं का त्याग नहीं, वस्तुओं के प्रति आसक्ति का त्याग। यदि कोई व्यक्ति संन्यासी के नाते यश और सम्मान की कामना करता है तो वह विरक्त कहाँ हुआ?
संन्यास के अर्थ पर विचार किया जाय तो विभिन्न प्रकार के विचार मिलते हैं। उनमें से एक है, ‘अपने ज्ञान की, अपनी संवेदनाओं की, अपने कर्म की, अपने पुरुषार्थ की, समष्टि के लिए आहुति देना संन्यास है।’ इस विचार से स्पष्ट है कि संन्यासी का अपना कुछ नहीं रह जाता। उसका व्यक्तित्व समष्टि के लिए होता है। संन्यासी के लिए विभिन्न परंपराओं का भी प्रचलन है किन्तु वास्तविकता यह है कि संन्यासी समस्त मानोपमान व सामाजिक परंपराओं से मुक्त होता है। किसी भी प्रकार का कर्मकाण्ड संन्यासी के लिए नहीं होता। वह कर्म अवश्य करता है, किन्तु निर्लिप्त होकर क्योंकि कर्म के बिना तो शरीर का अस्तित्व ही संभव नहीं है। कर्म काया का धर्म है। सभी प्रकार के कर्म करते हुए भी कामनाओं से निर्लिप्त होना संन्यासी का स्वभाव है।
संन्यासी के लिए यह आवश्यक नहीं कि वह घोषणा करे कि वह संन्यासी है। संन्यासी के लिए यह आवश्यक नहीं कि वह अपने आपको संन्यासी प्रदर्शित करने के लिए विशेष वेशभूषा धारण करे। अपने आपको संन्यासी के रूप में प्रदर्शित करते हुए सम्मान की चाह करना ही संन्यास की मूल भावना के खिलाफ है। संन्यासी तो वह है कि संन्यासी के रूप में प्रदर्शित करने के अपने मोह से भी मुक्त हो जाए। जन सामान्य उसके आचरण से अनुभूति करे कि अरे! यह तो संन्यासी हो गया/हो गई। संन्यासी या संन्यासिन का सम्मान या इस नाते समाज से अपने निर्वाह की अपेक्षा करने से तो अच्छा है कि हम कर्म करते हुए कर्म के फल के प्रति आसक्ति का त्याग कर अपने आपके प्रति भी आसक्ति को त्याग कर योगेश्वर और प्रबन्धन गुरु श्री कृष्ण की तरह संन्यस्त हो जाएं। ऐसी स्थिति में एक विद्यार्थी, एक युवा, एक गृहस्थ भी बिना घोषणा किए स्थिति प्रज्ञ संन्यासी हो सकते हैं।