कविता
मेरे अस्तित्व की भूख है तुम्हें
तो लो आज मिट्टी हुई जाती हूं
मेरे प्राणों की प्यास थी तुम्हें
तो लो आज निष्प्राण हुई जाती हूं
अपमान की रोटी तिरस्कार के घूंट
लो आज भूख ही तजे जाती हूं
मैं दखल दूं तुम तुम्हें पसंद नहीं था
लो तुम्हारी जिंदगी से बेदखल हुई जाती हूं
समेटकर अपनी सारी भावनाएं और प्रेम
लो आज जली जाती हूं लो आज जली जाती हूं
अरमानों से चढ़ डोली आई मगर
कंधों पर चढ़ चली जाती हूं
सुखी रहना तुम सदा जहां में
तुम्हारा दुख लिए मैं अब मरी जाती हूं
सुला दो कब्र में के अब बहुत नींद आती है
ओस की बूंद भी मेरा हृदय बींध जाती है
— सुनीता द्विवेदी