ग़ज़ल
रहती कहाँ हो कि दिखती नहीं हो
क्यों मेरी आँखों में बसती नहीं हो
कहाँ खो गये प्यार के बोल तेरे
कोई ख़त मन में भी लिखती नहीं हो
याद आती है डाँट अब भी तुम्हारी
ग़ुस्से में भी तुम कुछ कहती नहीं हो
बरसों न मिलती खबर कुछ तुम्हारी
दुनियाँ में जैसे कि रहती नहीं हो
मचलती निगाहें तुम्हें देखने को
इक बार भी ‘अंजान’ कहती नहीं हो
— डॉ. विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’