परिणति
संवेदनाओं की है कैद
मोह का है बंधन
इस अथाह जीवन का
न ओर है न छोर
कौन-सा रास्ता सही है या ग़लत
इसका निर्णय कैसे हो !
क्या पाएं तो जीवन हो सार्थक
वरना सब हो व्यर्थ
किस दिशा चले
और रुके कहां
यह कौन करें तय !
भावनाओं का बवंडर
मचाए भीतर शोर
अकेलेपन के कमरे में
चाहतों की लगी है रेलमपेल !
खुशियों के पीछे भागते भागते
कितने दुःख लिए मोल
दुःखों के कांटों में
उलझ गई जीवन की डोर !
सपनों के चिथड़े जोड़
हकीकत की चादर बनी
सपनों को पूरा करने को
जो लगाया तनिक जोर
हकीकत की चादर तार-तार हुई !
किधर जाएं किधर रुके
यह प्रश्न है घनघोर
जीवन की परिणति है
बस मृत्यु की ओर
— विभा कुमारी “नीरजा”