ग़ज़ल
ये हवा ये सुखद बयार तुम्हें
सौंपता हूं मैं बार बार तुम्हें
सुब्ह लफ़्ज़ों के फूल बिखरे हैं
चुन लो कह रहा हरसिंगार तुम्हें
चल किसी पहाड़ी पर चलते हैं
बुला रहे हैं आबशार तुम्हें
आज कितना खुमार छाया है
फिर मुबारक हो ईतवार तुम्हें
जी लो जी भरके प्यार कुदरत का
यही रखेगी खुशगवार तुम्हें
ऐसे अहसास से गुज़रे हो तुम
अब न भाएगा ये दयार तुम्हें
एक आहट पे` जाग जाता है
करता है मन ये बेकरार तुम्हें
विंध्य की तलहटी बुलाती है
हाथ देता है फिर चुनार तुम्हें
— डॉ. ओम निश्चल