कविता

तुमको कैसे पाऊं

विरह दूर करो हे नाथ ! अब तो मेरा,
सता रहा है अज्ञान का घनघोर अंधेरा,
जानता हूं, मैं हूं एक अंश ही तुम्हारा,
हैं विचारों की कशमकश मैंने तुम्हें पुकारा ।

इस मायावी दुनिया में सद्गुरु किसे बनाऊं,
व्यथा मैं अपनी यहां प्रभु किसे सुनाऊं,
भ्रम जाल और दुविधा में फंसा जी रहा हूं,
दर-दर ठोकरें खा कर कष्टों को सह रहा हूं ।

यहां स्वप्न की सुंदर दुनिया हर नया गुरु दिखाता,
मीठी “आनंद” भरी बातों से मन को बहलाता,
जीवन में तुझसे मिलने की आस भी जगाता,
टूट गया मैं, जब छल प्रपंच उसका सामने आता ।

अपने कर्म बन्धनों से,पाऊं कैसे मुक्ति हे भगवंत,
कहां मिलेंगे सत् गुरु कृपालु ज्ञानेश्वर श्री महंत,
हैं क्यों ये दूरी प्रेम जब करता हूं तुमसे मैं अनंत,
करूं मैं कैसे, बता दो तुम्हीं सच्चे संतों का संग ।

चाहता हूं मैं, ज्ञान के प्रकाश से हो जाए उजियारा,
अंतस की आस बस मिलन हो जाए हमारा तुम्हारा,
दीनानाथ अब तो लगा दो मेरी नाव को किनारा,
सहा नहीं जाता, ये अधूरापन कृपालु दे दो सहारा ।

— मोनिका डागा “आनंद”

मोनिका डागा 'आनंद'

चेन्नई, तमिलनाडु