वचन
लघुकथा
वचन
“भाई साहब, हमें आपकी बेटी पसंद है। यदि आपको ऐतराज न हो, तो हम पंडित जी से सगाई की मुहूर्त निकालने की बात कर सकते हैं।” लड़के के पिता रमेश ने कहा।
“हमारी बेटी आपके परिवार की बहू बनेगी, ये तो हमारी खुशकिस्मती होगी। नेहा हमारी इकलौती बेटी है। अपनी तरफ से हम कोई कसर नहीं छोड़ेंगे फिर भी यदि लेन-देन की बात तय हो जाती तो…” लड़की के पिता संतोष ने कहा।
“क्या भाई साहब, आप भी किस जमाने की बात करने लगे हैं। आप हमें अपनी बेटी दे रहे हैं और हम आपको अपना बेटा। इससे बड़ा लेन-देन और क्या हो सकता है ?” रमेश ने पूछा।
“जी… जी… सो तो है ही, पर दुनियादारी भी निभानी तो पड़ती ही है न।” संतोष ने कहा।
“देखिये भाई साहब, हम इन सब चीजों पर विश्वास नहीं रखते। शादी भी हम बहुत ही सीधे-सादे तरीके से करने के इच्छुक हैं. ज्यादा भीड़-भाड़ और ताम-झाम हमें बिलकुल भी पसंद नहीं है। हाँ, यदि आप कुछ देना ही चाहते हैं, तो हमें इन सबके सामने एक वचन दीजिए।” इस बार लड़के की माँ निर्मला बोली।
“वचन… कैसा वचन बहन जी ?” संतोष ने आश्चर्य से उनकी ओर देखते हुए कहा।
“हमें यह वचन दीजिए कि आप हमारे बेटे को दामाद से ज्यादा बेटा मानेंगे और कभी ये नहीं कहेंगे कि मैं तो बेटी का बाप हूँ, आपके घर का पानी कैसे पी सकता हूँ ? पानी तो क्या आपको हमारे घर खाना भी खाना पड़ेगा। कहिए, मंजूर है आपको मेरी बात ?” निर्मला मुस्कुराते हुए बोली।
संतोष ने एक बार अपनी पत्नी और बेटी की तरफ देखा और मुस्कुराते हुए कहा, “हाँ, आप पंडित जी को सगाई का मुहूर्त निकालने के कह सकती हैं।”
– डॉ. प्रदीप कुमार शर्मा
रायपुर, छत्तीसगढ़