कहानी

कहानी – बेदखल

हादसा जब हुआ, मैं अठारह की थी और मैट्रिक की परीक्षा की तैयारी में लगी हुई थी। ” अच्छे नम्बर, अच्छे अंक लाओ ” सुन सुनकर मेरे कान पक गए थे। मेरी पढ़ाई को लेकर घर में हर कोई मास्टर बने फिरते थे।
मां दमे की मरीज थी,रूक रूककर खांसते रहती थी। परन्तु मेरी पढ़ाई पर उसका नन स्टॉप प्रवचन शुरू हो जाता ” दोपहर को कहां चली गई थी तू, अपने कमरे में नहीं थी ?” शाम को मां दिया- बाती जलाते जलाते बोल उठी” ज्यादा घूमना फिरना तुम्हारा ठीक नहीं है। पढ़ाई चिनिया बादाम नहीं है, छिलका उड़ाया और मुंह में डाल लिया!”
वहीं भाई किसी भूत की तरह मेरी पढ़ाई के पीछे पड़ा रहता। वह सप्ताह में सिर्फ एक दिन घर आता। खुद तो मैट्रिक पास नकर सका था। लेकिन उसके बैग में मेरे लिए ढेरों हिदायतें भरी होती ” पढ़ाई में कोई ढिलाई नहीं, यह लो हॉर्लिक्स, रात को सोने से पहले गरमकर एक गिलास रोज पीना, दिमाग और देह तंदुरुस्त रहेगा, तुम्हें अपनी बखरी में ही नहीं,पूरे गांव में टॉप करना है! “
” बाप रे बाप! काम पर जाने के पहले दादा सप्ताह भर का डोज एक ही दिन में मेरे भेजे में ठूंस जाता था। उसका बेसिक फंडा यह था कि जैसे मैं मैट्रिक में फेल किया हूं, वैसे तू फेल मतकर जाना मेरी बहन। फेल शब्द से उसे सख्त चिढ़ थी। फेल के कारण ही उसे आज भी कार्यस्थल पर चैन खींचने पड़ते थे। उसके ससुराल की जमीन को सीसीएल कंपनी ने अधिग्रहण किया था और जमीन के बदले में उसे चैनमेन की नौकरी दी गई थी।
अलबत्ता बाप कुछ नहीं कहता। वह शाम को काम से घर आता, पहले नहाता, फिर खाना बनने तक वह मेरे कमरे में ही आकर चुपचाप बैठ जाता और पढ़ते हुए मुझे निहारता रहता था। इसे भी आप निगरानी ही कह सकते हैं। पढ़ने वाली सिर्फ एक मैं, और निगरानी करने वाले तीन! भौजी न तो मुझे कोई सलाह देती न भाव! आठवीं फेल थी वो।
घर में रूपये चार पैरों से चलकर आते थे। बाप मकोली भूमिगत खदान में लोडर था और भाई गोबिंदपुर खदान में चैनमेन। घर में दो दो नौकरी पर एक भी पढ़ा लिखा वाला काम नहीं! ढेरों पैसों के बावजूद समाज में कोई अहमियत, कोई इज्जत प्रतिष्ठा नहीं और न खोज खबर होती। हां, समाजिक काम पर समाज वाले नौकरी के नाम पर मनमानी चंदा रशीद जरूर काट देते ” दो दो नौकरी है घर में ” लेकिन समाजिक मंचों पर बाप भाई को कोई सम्मान नहीं मिलता बैठने की जगह तक नहीं मिलती थी। इस पर भी भाई हमेशा खफा खफा रहता था।
मेरे ऊपर उम्मीदों का पहाड़ लदा था और सबकी उम्मीदों को ढोने वाली एक नन्ही सी जान! अब सबकी निगाहें मुझपर आ टिकी थी। जैसे गंगोत्री से निकलने वाली कोई गंगा हूं मैं और इस खानदान में ” अनपढ़ खानदान ” का लगे दाग धब्बों को धोने वास्ते पैदा हुई हूं।
भाई बार बार एक ही बात दुहराता ” मेघना, मैं तुम्हारे हाथ में फर्स्ट डिवीजन का सर्टिफिकेट देखना चाहता हूं -बस! “
मैं दादा का मुंह ताकती रह जाती थी। मैं समझ नहीं पाती। मेरे प्रति भाई का यह प्यार था, अनुराग था या कुछ ओर।
मैं भी घर वालों का, खासकर भाई का, प्यार और स्नेह, को खोना नहीं चाहती थी। लग गई थी सबों की आकांक्षाओं को पूरा करने में। परन्तु काल गति की मति को आज तक कोई जान सका है भला। पल में प्रलय करे, रोक सके न कोई! सुधीर बाबू का कहा कितना सही लगता है ” हरेक का जीवन तो अपना होता है मेघना, पर हर कोई ढंग से कहां जी पाता है!”
गलत नहीं कहते थे वो। मैं जब जब अपनी नियति और भाग्य से लड़ना चाहा,तब तब लहुलुहान हुई हूं।
दफ्तर का जीवन भी मेरे लिए एक नया जीवन था। एक नया अनुभव! जीवन में पहली बार सेक्स या फिर मांस मदिरा का सेवन करने जैसा।
आज भी याद है मुझे। उस दिन पहली बार जब भाई के साथ ऑफिस में कदम रखा था, दस साढ़े दस का वक्त था और ऑफिस की अधिकांश कुर्सियां खाली और लावारिसों की भांति जिधर जिधर पड़ी हुई थी। दफ्तर की कार्यसंस्कृति की यह सूरत देख मन खिन्न हो उठा था।
” छोड़ो न इससे तुम्हें क्या लेना-देना है?” भाई बोला था -” चलो तुम्हें वहां ले चलता हूं, जिनसे मिलकर तुम्हारी सोच बदल जाएगी!”
लगा था बाबूओं को कोढ़िया बीमारी ने पकड़ लिया था या प्रबंधन का उन पर अंकुश नहीं रह गया था।
सुधीर बाबू, नाम ही काफी था। ऑफिस और कोलियरी में किसी परिचय का मोहताज नहीं। तीस बतीस की उम्र,भीड़ में रहते हुए भीड़ से अलग। सरल स्वभाव, आकर्षक चेहरा! मनमोहक मुस्कान काम के प्रति पुरी तरह समर्पित। नो कामचोरी, नो बहानेबाजी! काम तो काम। नीचे मन में उठे कोलाहल ऊपर आकर शांत हो गया था। दो तीन मजदूर पहले से ही वहां मौजूद थे।
” तुम लोग जाओ, डरने की जरूरत नहीं, किसी को कुछ नहीं होगा, पीओ साहब से मैं बातकर लूंगा!” थोड़ी देर बाद वे लोग चले गए।
” बैठो!” उसने मुझसे कहा था।
सकुचाते हुए मैं उसके सामने की कुर्सी पर बैठ गई थी। थर्मामीटर लेकर कोई मेरी धड़कनों को नापता ” धाड़ – धाड़ सुनाई पड़ता उसे ” ऐसा मुझे महसूस हो रहा था।
” दादा,आज से मेघना आपकी देख-रेख में!” भाई ने जैसे उनके हवाले करते हुए कहा था।
सुधीर बाबू ने मेरी ओर देखा, मैं नर्वस हो उठी थी। जाने अब क्या पूछ बैठें! और वही हुआ भी।
” मेरे साथ काम करना पसंद करोगी?” उसने अचानक मुझसे पूछ बैठा।
मेरे मुंह से जवाब न निकला।
” लगता है, यहां की भीड़-भाड़ देख डर गई, ठीक है दूसरी जगह ऑफिस में ही रखवा दूंगा!”
इससे पहले कि भाई कुछ बोले मैं ही बोल उठी –
” नहीं, नहीं, मैं यहीं काम करूंगी,आपके साथ!”
” गुड़! मेरा ऑफिस नौ बजे खुल जाता हैठीक!”
मैं उन्हें चोर नज़रों से देखने लगी। वह भाई से कुछ कह रहे थे।
भाग्य करवट बदल रही थी या किस्मत। लग रहा था जीवन की उदासी में रंग भरा जा रहा है। नये जीवन का उदय हो रहा था। दो घंटे बाद ही मुझे ज्वानिंग लेटर मिल गयी। सुधीर बाबू का सहायक बनकर काम करने का आदेश पत्र!
पहले तो बड़ा अजीब लगा था। उनके टेबुल में लोगों की भीड़ देख कर। फिर जब पता चला सुधीर बाबू सिर्फ दफ्तर का बाबू ही नहीं, मजदूरों के युवा नेता भी थे ” भीड़ तो रहेगी ” मन आश्वस्त हुआ था।
” दोस्त बनना पसंद करोगी ?” भाई के सामने ही फिर से उसने पूछ लिया था।
दोस्त का मतलब क्या होता है, फ्रेंडशिप क्या होती है! मुझे आज तक कुछ पता नहीं था। उनकी उम्र को लेकर भी थोड़ी झिझक थी। उसे भी भाई ने ” अरे, दोस्ती में उम्र कोई मायने नहीं रखती। यह तुम्हारी खुशनसीबी है जो सुधीर बाबू जैसा दोस्त मिल रहा है! “
” दोस्त बन कर!” मेरा जवाब था।
मेरी नौकरी हादसे की उपज थी। उन्होंने जब यह जाना तो दुःख प्रकट करते हुए कहा -” कोई धूप में रहकर भी नहीं जलता है और कोई छांव में ही चमड़ी जला लेता है मेघना! सुख दुख से जीवन अलग नहीं होता। यह हमें इसी जीवन में जीना पड़ता है!”
वह दफ्तर का आदमी था। मजदूर नेता था। परन्तु कोई दार्शनिक नहीं था। फिर भी उनकी हर बात में एक दर्शन होता, एक लॉजिक होता था। जीवन अपने तरीके से जीने का लॉजिक!
यहीं मुझे गांव की करेला काकी! शांति मिली। शांति देवी मिलकर विश्वास नहीं हो रहा था कि यह वही काकी है जो गांव में हर किसी से झगड़ने का बहाना ढूंढ़ती फिरती थी। यह देख गांव वालों ने करेला काकी की उपाधि तक उसे दे डाली थी। देखकर यह भी नहीं लगा वह तीन बच्चों की मां है। उसकी कसी हुई देह, सुडौल स्तन! आज भी चालीस की काकी चौबीस की लग रही थी। सिंदुर छोड़ सब कुछ पहनती, लगाती थी करेला काकी। गांव में ब्रा का नाम तक नहीं जानती थी। आज बिंदास उसे पहने हुए थी। घर में लड़ना उसे पति ने ही सिखाया था। वरना शुरू में औरतें उसे गूंगी पुतोहिया कहती थीं। दारू की नशे में धुत्त हर दिन उसका पति घर आता और फिर देर रात तक उस घर में लड़ने और चीखने की आवाजें आती रहती थीं। फिर एक दिन उस घर से चीखने की आवाजें सदा के लिए बंद हो गई। उस दिन उसके पति ने कुछ ज्यादा ही पी रखी थी। काम से गिरते पड़ते किसी तरह घर पहुंचा। आंगन में क़दम रखा। पैर लड़खड़ाया और अगले ही पल आंगन में मवेशियों को पानी पीने वाले पत्थर के ढोंगा से उसका सर जा टकराया। अस्पताल ले जाते वक्त रास्ते में दम तोड दिया।
” ब्रेन हेमरेज ” कंपनी डॉक्टर ने कारण में लिखा था।
घर की तरह ऑफिस भी एक परिवार ही होता है। पर यहां रोज रिश्ते बनते बिगड़ते हैं। कब कौन किसकी गाल सहला रहा है, कौन कब किसे चूम लेता है, समय भी जान नहीं पाता। आभासी दुनिया की तरह होता है आफिस का जीवन। संबंधों को बनते बिगड़ते देर नहीं लगती है।
ऑफिस की नौकरी में मेरा तीन माह भी नहीं हुआ था कि ऑफिस जीवन का रहस्य और रोमांच सामने आने लगा था। उस दिन मैं ऑफिस थोड़ी देर से पहुंची थी। घरेलू टेंशन से रात भर सर दुखता रहा। सुधीर बाबू पहले ही पहुंच चुके थे। मैं ज्योंहि ऑफिस में कदम रखा, कानों में एक नारी आवाज टकराई ” कुंवारी छोंइड़ देख मुंह से लार टपकने लगा! उसे अपने पास रखने की क्या जरूरत थी?”
यह शांति काकी थी। बहुत दिनों बाद उसकी आवाज सुन रही थी। ” कुंवारी छोंइड़!” यानि मैं। मतलब!
” बकवास बंद करो, और जाकर अपना काम करो!” सुधीर बाबू ने उसे बुरी तरह डपट दिया था। इसी के साथ वह बाहर हो गई और मैं अंदर!
उस वक्त मेरी मन: स्थिति ऐसी नहीं थी कि उन दोनों की स्थिति को ठीक ठीक समझ पाती। ऑफिस के लिए घर से निकला तो घर का तुफान मेरे अन्दर तोड़ मरोड़कर रहा था और मैं उसी आवेग में ऑफिस पहुंचा थी। सोचा था कि ऑफिस में शांति मिलेगी। शांति काकी तो मिली लेकिन मन को शांति नहीं मिली। यहां करेला काकी की कही बात कानों में गूंजने लगी थी ” कुंवारी छोंइड़ देख मुंह में लार टपकने लगा है!” उसका इशारा तो मेरी ओर ही था।
मेरी भाव भंगिमा बहुत देर तक सुधीर बाबू से छिपी न रह सकी। मेरी मनोदशा को पढ़ते हुए उसने कहा ” क्या सोच रही हो मेघना ? बात क्या है, बहुत गुस्से में लग रही हो?”
” तकदीर से अनबन चल रहा है। बार बार मेरी खुशियों को कुचलने चला आता है!”
” मैं कुछ समझा नहीं, फिर कुछ हुआ क्या?”
” भाई, मेरी शादी मेरी मर्जी के खिलाफ करने को आमादा है!”
” ओह! मैं समझा कुछ और बात है। ” उसने मेरी ओर देखा -” फिर शादी तो कुंवारियों की ही होती है,हम जैसों की नहीं, तुम कुंवारी हो लेकिन तुम्हारी शादी इतनी जल्दी ? नौकरी लगे अभी महज तीन महीने हो रहे है!”
” शादी की जल्दी मुझे नहीं, मेरे भाई को है!”
” कारण ?”
” बाप की नौकरी जो मैंने ले ली है।!”
” तो इसमें गलत क्या हुआ ? भाई पहले से नौकरीकर रहा था। कुंवारी में तुम बड़ी थी। तुम न करती तो फिर नौकरी कौन करती ?”
” भैया, भाभी को नौकरी देने की जिद पर अड़ा था। लेकिन मां ने कहा ” नौकरी, मेघना ही करेगी ” भाई नाराज होकर आ गया था। तब से नाराज़ ही है!”
” तुम्हारे बाप की नौकरी थी, भाभी के बाप का नहीं, मां का फैसला बिल्कुल सही फैसला था। रही बात शादी की तो इसका निर्णय लेने का हक सिर्फ तुम्हारा है, इस मामले में तुम अपने मन की मालकिन है!”
” कैसी मालकिन, मेरा तो जीवन ही बंधक बन गया है!”
” ऐसा क्यों सोचती है!” वह अपनी जगह से उठे और दो कदम आगे बढ़ आए ” तुम्हारे मर्जी के खिलाफ कोई कुछ नहींकर सकता है। तुम्हारा भाई भी नहीं!” कहते कहते उसने अपना हाथ मेरे कंधे पर रख दिया -” तुम टेंशन मत लो, मैं हूं न तुम्हारे साथ!”
मेरे शरीर पर हाथ रखने वाले सुधीर बाबू पहले पुरुष थे। मुझे उनका हाथ अपने कंधे से तुरंत हटा देना चाहिए था। बल्कि झटक देना चाहिए था। पर ऐसा नकर उल्टे उसके सीने से लिपट जी भर रोने का मेरा मनकर रहा था। उनकी आंखों में मुझे प्रेम का एक खुला आकाश नजर आ रहा था।
सुधीर बाबू को बहुत कुछ पता नहीं था। मैं उसे बताना चाहती थी कि उसका भाई अब पहले वाला भाई नहीं रहा और न मैं उसकी लाडली बहन रही। नौकरी ने हम भाई-बहन को प्रतिद्वंद्वी बना दिया था। सुधीर बाबू को मेरी बातों पर विश्वास नहीं हो रहा था। सुधीर बाबू ही क्यों? तीसरा कोई सुनता तो वो भी मेरी बातों में यकीन नहीं करता। कोई भाई अपनी सगी बहन के साथ ऐसा किया हो, जैसा मेरे भाई सोहन ने किया था।संसार के किसी ग्रंथ में भी उसका जिक्र नहीं मिलता।
सुधीर बाबू को यह भी कहां बोल पाई कि नौकरी के बहाने हमारे घर में पिछले एक महीने से महाभारत मचा हुआ। जहां वह यानी मैं अभिमन्यु की तरह जीवन के चक्रव्यूह में फंस चुकी हूं। बचकर निकलना चाहूं भी तो जीवन बचेगा कि नहीं इसकी कोई गारंटी नहीं और बच भी गयी तो उसकी वजूद कायम रह पाएगी इसका भी कुछ पता नहीं था।
और क्या क्या बताते सुधीर बाबू को,उस हादसे को जब भी याद करती थी, मैं भीतर से कांप उठती थी। पूरा शरीर मेरा सिहर उठता था। बाप की क्षत विक्षत लाश आंखों के सामने घूमने लगती थी। वह एक ऐसी घटना थी, जिसने घर की बुनियाद को हिलाकर रख दिया था। बाप की मौत का कोई मरहम नहीं था। उल्टे संबंधों का तार तार होना शुरू हो गया था। बाप की जगह नौकरी कौन करे, इस सवाल ने सबको उलझा दिया था।
” नौकरी मेघना ही करेगी!” मां की इस घोषणा से घर में जैसे जलजला आ गया था। भाई हर दिन शराब पीकर घर आता और मां से घंटों लड़ता रहता था। मां ने चुप्पी ओढ़ ली थी।
मेरी नौकरी में आते ही, शादी के रिश्ते भी आने शुरू हो गये थे। कई तो चोरी छिपे ऑफिस तक पहुंचने लगे थे ऐसा कुछ का कहना था। उधर भाई ने भी बाप की अंतिम इच्छा का सवाल खड़ाकर मुझे घर में ही घेरने पर आमादा हो गया था।
बाप के साथ उसका बचपन का एक दोस्त भी काम करता था। जाने कब उन दोनों ने एक निर्णय ले रखा था कि मेघना और लखपत बड़े होने पर दोनों की शादी करा देंगे ताकि हमारी दोस्ती बरकरार रहे। यह बात सिर्फ मां जानती थी और एक दिन भाई सोहन भी जान गया था। अब उसने उसी को हथियार बना लिया था ” हमें बाप की इच्छा का सम्मान करना चाहिए!” भाई जोर देने लगा था। इस मकसद से वह कई बार बाप के दोस्त से मिल चुका था। कल भी गया था। लौटा तो काफी खुश था। जैसे कोई मनमुराद उसकी पुरी होने वाली हो, कोई बड़ी जीत होने वाली हो। आते ही मां से कहा -” मां,वे लोग शादी के लिए राजी हो गए हैं। लेकिन शादी इसी सप्ताह करने पर जोर दे रहे हैं!”
” पर, इतनी जल्दी, सर समान!” मां ने कहना चाहा।
” लखपत के बाप की यही इच्छा है। समान बाद में भी खरीदाता रहेगा!”
सुना तो मैं उबल पड़ी -” मैं गांव में शादी हरगिज नहीं करूंगी और उस जाहिल गंवार बकरी चरवाहा से तो कदापि नहीं!”
” तुमसे पूछ कौन रहा है, तुम वही करोगी जो मां चाहेगी। यह मत भूलो, नौकरी मां की इच्छा से ही तुम्हें मिली है!”
” यह तो सीधे सीधे तुम्हारे जीवन को भाई गिरवी रखने का कामकर रहा है!” सुधीर बाबू बेहद चिंतित हो उठे थे- ” तुम किसी तरह अभी शादी टालने का प्रयास करो, मैं कुछ करता हूं!” उसने आगे कहा और मेरी आंखों से बहते लोर को पोंछने लगे थे।
सुधीर बाबू हमारे लिए कुछ करते, उसके पहले मुझे उठा लिया गया। नौकरी में साथ देने वाली मां ने भी खेमा बदल ली थी ” बाप की इच्छा को पूरा करना हमारी जिम्मेदारी है!” कह भाई की मनमानी पर अपनी “ हां “ की मुहर लगा दी थी।
मेरी इच्छा के विरुद्ध रची गई उस तथाकथित शादी में किसी ने मेरा साथ नहीं दिया। और मैं बलात लखपत की पत्नी बना दी गई। शादी कभी टूटे नहीं, यह सोच उस पर धार्मिक चादर डाल दिया गया। शादी हरिहर धाम में सम्पन्न करायी गई। तीन साल पहले मंझली दीदी की शादी भी उसी हरिहर धाम में हुई थी। मुझे याद है दीदी कितनी खुश थी। पर अपनी ही शादी में मुझे भाई के ” चटाक! चटाक! ” गाल पर पड़े दोनों चांटें याद आ रही थी।
” बेटी, आज से लखपत तुम्हारा पति हुआ। और पति परमेश्वर होता है, याद रखना!” विवाह कराने वाले बाभन के कहे उन शब्दों को मैं उस रात भोगती रही। सुबकती रही और सुलगती भी रही!
” तुम सब ने मिलकर मेरी भावनाओं का खून किया है। मुझे खून के आंसू रूलाया है। अब मैं तुम सबको इसकी मजा चखाऊंगी। खून के आंसू न रूलाए तो मेरा नाम मेघना नहीं और एक बाप की बेटी नहीं!” इसी संकल्प के साथ अगले दिन आधा घंटा पहले ऑफिस के लिए मैं घर से निकल पड़ी थी। पीछे आते पति लखपत को देख, जोर से झिड़क दी उसे ” कुत्ते की तरह पीछे क्यों दौड़ा चला आ रहा है ? मैं ऑफिस जा रही हूं, कहीं भागी नहीं जा रही। फिर कभी दूबारा मेरे पीछे आया या पीछा किया तो कोर्ट का रास्ता दिखा दूंगी। “
लखपत को जैसे लकवा मार दिया। जो पीछे मुड़ा, दूबारा मेरी ओर नजर उठाकर देखने की हिम्मत नहीं हुई।
जीवन में जब किसी के प्रति उम्मीदें बढ़ जाती है और दिल किसी को अपना मान लेता है तो जीने की राह आसान हो जाता है। इच्छा के विरुद्ध कुचले हुए शरीर लिए घर से निकलकर मैंने सुधीर बाबू को फोनकर दिया ” टिफिन बॉक्स भूल न जाना!”
” क्यों, कोई खास बात है क्या ?”
” कोई भूखा भी तो हो सकता है! एक बात और, मैं आफिस टाइम से आधा घंटा पहले पहुंच रही हूं!”
” क्यों, कोई खास बात?”
” फिर वही सवाल, अरे, कोई नींद का जागा भी तो हो सकता है!”और फोन काट दी थी मैंने।
” नफरतों के बाज़ार में प्रेम का सौदा अक्सर महंगा पड़ता है!” सुधीर बाबू अक्सर कहा करते थे। आज आजमाने का दिन आ गया था।
ऑफिस पहुंची,सुधीर बाबू की बाइक अपनी जगह पहले से ही खड़ी थी। मैं दौड़ती हुई ऊपर की सीढ़ियां चढ़ने लगी। कमरे में कदम रखा तो सुधीर बाबू को खड़े पाया। विवाहित रूप में देख चौंक उठे ” तुम्हारी मांग में यह सिंदूर?”
” यह सिंदूर नहीं,अबीर है। कल कुछ लोगों ने मेरे जीवन के साथ होली खेल लिया छोड़ो न इन बातों को, मुझे बड़ी जोर से भूख लगी है, कुछ लाए हो तो खाने दो!”
” मेघना,सच सच बताओ यह सब कैसे हुआ ? कल ऑफिस से गयी थी तो कुंवारी थी। एक ही रात और दिन में! तुमने फोन तक नहीं किया ?”
” सुधीरसधीर!” और मैं उनसे लिपटकर रो पड़ी ” सुधीर,उन जालिमों ने मेरा सब कुछ लूट लिया। मेरी खुशियां, मेरे सपने और मेरे अरमान सब कुछ हरिहर धाम में स्वाहा हो गया फोन जब्तकर लिया था जालिम भाई ने!”
सुधीर बाबू अपने हाथों से मुझे खाना खिलाते रहे और मैं उन्हें एक एक बात बताती रही। रात की लखपत की करतूत भी बता दी उसे। खाने तक उन्होंने कुछ नहीं कहा। वह मेरे लिए अलग से खाना लेते आए थे।
” अब तुमने क्या सोचा है ?”
” चलो!”
” कहां?”
” जहां करेला काकी को लेकर जाते हो!”
” तो तुम जान गई है। उसका तो पति नहीं है, पर तुम्हारा तो अब पति है!”
” मेरा भी पति नहीं है। मेरा पति कौन होगा, मैं तयकर चुकी हूं! जिस दिन साथ छोड़ दोगे,जान दे दूंगी याद रखना!” कह उससे लिपट गई थी मैं। उसने मेरे मुंह पर हाथ रख दिया” मुझे ऐसे ही प्यार की तलाश थी। आखरी सांस तक साथ नहीं छोडूंगा!” उसने कसकर मुझे अपनी बांहों में जकड़ लिया। थोड़ी देर बाद उसने कहा” तुम्हारी उस करेला काकी का क्या होगा ?”
” मैं उसका विरोध नहीं करूंगी, तय आपको करना है!”
” तयकर लिया!”
” क्या?”
” चलो भी!” उसने मुझे बाहों में उठा लिया था।
ऑफिस का वह कमरा कभी किसी ऑफिस स्टाफ का फैमिली क्वार्टर हुआ करता था। जब वो सामने की कालोनी में सिफ्ट हो गया तभी से वह सुधीर बाबू के कब्जे में था। उसी कमरे में जहां सोने के सारी व्यवस्था पहले से ही थी। मेरे जीवन का आगाज हो रहा था!
” मेघना, हमें ऐसा नहीं करना चाहिए!” मेरे कानों में यह कमजोर सी आवाज पड़ी। इसी के साथ सुधीर बाबू का बोझ क्रमश: बढ़ता जा रहा था। और इस बोझ के नीचे मेरे साथ जैसे सारे उत्तर,सारे शब्द और सारे तर्क वहीं दबे जा रहे थे, बल्कि कुचले जा रहे थे एक सुखद संतुष्टि और एहसास के साथ।
मैंने अपने जीवन का मार्ग चुन लिया था। वह कमरा अब हमारे लिए लाइफ लाइन कमरा बन चुका था। ऑफिस आने और मिलने का हमने एक टाइम निर्धारितकर लिया था। हर रोज का सुखद मिलन का एहसास घर लौटने तक मेरे साथ रहता।
सप्ताह दिन की छुट्टी के बाद करेला काकी काम पर लौटी थी। किसी काम से मैं नीचे उतरी थी। वापस अपने ऑफिस में लौटी तो सुधीर बाबू के साथ शांति को लड़ते पाया ” मेघना मेरी बेटी की उम्र की है। पर तुम मर्द जात को इससे क्या फर्क पड़ता है। अब उससे क्या कहूं!”
” और कुछ?”
शांति सुबकते हुए बाहर निकल आई थी। मैं दीवार की ओट में छिप गयी थी।
समय के साथ हमारे संबंधों का विस्तार होता गया।
इतने दिनों में हम बाहर भी घूमे, कई रात साथ भी बिताए। किसी को पता नहीं चला। मेरा बहाना होता ” मामा घर जा रही हूं, तो कभी मौसी घर जाना है” पूछने पर कह देती थी। इस बीच मैंने मैट्रिक का इम्तिहान लिखा और प्रथम श्रेणी से परीक्षा पास की। भाई न मिलने आया। न कोई खुशी न कोई संदेश!
ऑफिस में हमारे संबंधों की चर्चा शुरू हो गई थी। लेकिन उनमें आवाज नहीं होती। शायद सुधीर बाबू का दबदबा का असर था। करेला काकी का मुंह कान सब खुला था। वह बोलती कम सूंघती ज्यादा थी। सुधीर बाबू ने कहा ” किसी को मुंह नहीं लगना है। बोलने वालों पर ध्यान नहीं देना है!”
धीरे धीरे हमारे संबंधों की चर्चा हमारे घर में भी शुरू हो गई थी और हर दिन के बाद रात का पारा मुझे चढ़ा हुआ महसूस होने लगा था। कोई कुछ बोलता, कोई कुछ। पर सामने किसी का मुंह नहीं खुलता।
तभी एक दिन ” सर्विस सीट ” में नोमिनी के रूप में लखपत का नाम चढ़वाने का प्रस्ताव लेकर ससुर सामने आ गया। नोमिनी को लेकर इतनी जल्दबाजी क्यों ? सुनकर मैं दंग रह गई।
” अब तुम शादी सुदा हो, सर्विस सीट में नोमिनी की जगह कब तक खाली रखोगी ? लखपत का नाम चढ़वा दो वह इसका हकदार भी है।” उसने कहा।
” समय पर यह काम मैं खुद करवा लूंगी!” मेरा जवाब था।
ससुर के चेहरे का रंग उड़ गया। घर में सबको पता था कि मैं इस शादी से जरा भी खुश नहीं थी। उनकी सोच थी कि आज की पढ़ी लिखी लड़कियां कपड़ों की भांति पतियां भी बदलने में माहिर हैं। क्या पता कल यह भी लखपत को लात मार दे। कोर्ट में तलाक की अर्जी लगा दे। सर्विस सीट में नाम चढ़ा रहेगा। भाग नहीं पाएगी। ससुर कई रात सो नहीं पाया था। छिप छिपकर वह दो चार बार ऑफिस का भी चक्कर लगा चुका था। किससे मिलती है, कौन इसे बुद्धि देता है और किनसे मिलने से उसका काम हो सकता है। बेटे का नाम नोमिनी के रूप में चढ़वा सकता है। किसी ने सुधीर बाबू का नाम सुझाया। ससुर उनसे मिला भी ” सॉरी! मेघना की इच्छा के बगैर यह काम नहीं हो सकता है ” सुधीर बाबू का जवाब था।
उस रात शराब पीकर ससुर मुर्गा की तरह खूब बांगा ” मंझली का मति सुधीर बाबू ने खराबकर रखा है। वह सब कुछ उसी के कहे परकर रही है। वह हाथ से निकल चुकी है। उस टेढ़ी को सीधा करने के लिए हमें कोई टेढ़ी चाल चलनी होगी।”
उसके अगले ही दिन पिया हुआ मूड में ससुर भाई से मिला। बोला -” बहन से बोल कर, उसकी सर्विस सीट में लखपत का नाम चढ़वा दो। वह तुम्हारी बात नहीं काटेगी।”
” मेघना किसी की नहीं सुनेगी, बचपन से जिद्दी है। फिर आपका यह घरेलू मामला है। आप जानो, मुझे बीच में नहीं पड़ना है!” भाई का उतर उतना ही सपाट था।
इस पर दोनों के बीच जमकर बहसबाजी हुआ। हाथा पाई भी हुई, ऐसा भी सुना गया।
” तुमने हमें बेवकूफ बनाया,देख लूंगा! “
नोमिनी को लेकर मुझपर दबाव बढ़ता गया।
” यह मेरा निजी मामला है। समय पर मैं खुद चढ़वा लूंगी। बीच में किसी को चीखने चिल्लाने की जरूरत नहीं!” मेरा जवाब उतना ही धारदार होता। मेरे आगे किसी का कुछ चल नहीं रहा था। सब सदमे में थे जैसे।
समय के साथ मेरे स्वभाव और शरीर दोनों में परिवर्तन आने शुरू हो गये थे। इस बदलाव पर घर के तमाम मुंहों के बीच सुगबुगाहट तेज हो गई थी। मैं रात का खाना खाती और छत पर आ जाती। वहीं एक चदर डाल लेट जाती और कभी चांद तो कभी तारों के बीच अपना सितारा ढूंढा करती। इसी बीच हाथ बढ़ते पेट पर चला जाता। आखिर में हाथ स्तनों का आकार टटोलने लगता, जहां से मुझे सुधीर बाबू याद आने लगते। लखपत दूर से ही मुलुर मुलुर देखता रहता।
एक दिन सास को ससुर से कहते सुना ” मंझली ने लखपत को बोका बना दिया है। वह उसके इशारे पर नाचता फिरता है।”
” मैं समझ नहीं पाया, यह इतनी तेज निकलेगी। “
सुनकर अच्छा लगा था ” अभी तो खेल शुरू हुआ है ” मैंने मन ही मन कहकहे लगायी थी।
भाई ने काम पर जाना छोड़ दिया था। दिन भर शराब में डूबा रहता। फिर भी न जाने उसकी जेब में सौ सौ के नोट कहां से आ जाते थे। मां समझा समझाकर ” इतना पिया मत करो” थक चुकी थी। पर उस कोई असर नहीं। भाभी को भाई कोई भाव नहीं देता। भाई की जेब में ” सौ सौ का नोट ” बहुतों के लिए सवाल बना हुआ था।
साल पार किया। मैंने एक सुंदर बेटे को जन्म दिया। पर घर में कोई खुश नहीं। सभी का मुंह लटका हुआ। सभी का चेहरा उखड़ा उखड़ा। खुलकर कोई कुछ नहीं बोलता। परन्तु उनकी खामोशियां बहुत कुछ कह रही थी ” कुलटा, बदचलन ” और न जाने क्या क्या! मेरे बेटे की दांयी गाल पर तिल का होना, घर में किसी को हजम नहीं हो रहा था। किसी ने किसी दिन मेरी पीठ पीछे घर में आकर बम फोड़ दिया था ” ऑफिस के सुधीर बाबू के दांयी गाल पर भी तिल का निशान हैं ” इसको लेकर भी घर में फुसफुसाहट तेज थी।
तीन माह का मेरा मातृत्व अवकाश समाप्त हो चुका था। अब मुझे ड्यूटी ज्वाइनकर लेनी थी। लेकिन घर में मेरे बेटे को रखने को कोई तैयार नहीं था। लखपत को भी उन लोगों ने अपने साथ मिला लिया था। मेरे सामने विकट स्थिति उत्पन्न हो गई थी। अब सामने दो ही रास्ता बचा हुआ था। बच्चे को नानी के पास पहुंचा दिया करें और दूसरा ड्यूटी में साथ लेकर चल दें।
आज ड्यूटी ज्वाइन करनी थी। बेटे को साथ लेकर चली आई। जिसने देखा, वही सोच में पड़ गया। इसके अलावा बहुतों ने बहुत कुछ सोच लिया था। वर्कशॉप के एक वर्कर ने तो यहां तक सोच लिया ” बाप से बेटे को मिलाने ले आई है!”
सुधीर बाबू ने बेटे को गोद में लेकर चूम लिया ” बहुत प्यारा है मुन्ना!”
” आप ही का है!” मैंने चुहल की। उसने कोई जवाब नहीं दिया। उठकर उसने मेरे भी गाल को चूम लिया ” दोनों मां बेटे को बधाई!”
शाम को सास ससुर मेरे कमरे में आ धमके। पर आज की धमक पहले जैसा नहीं था। गरजकर ससुर बोला ” हमने सुना है कि तुम अपने सर्विस सीट में लखपत का नाम चढ़वाना नहीं चाहती है। क्या यह सच है ?”
” जिसने बताया उसी से क्यों नहीं पूछ लिया,सच क्या है और झूठ क्या है!”
” हम तुमसे पूछते है। कब तक नोमिनी में लखपत का नाम चढ़ जाएगा ?”
” जब मेरी मर्जी होगी!”
” इस घर में तुम्हारी नहीं हमारी मर्जी चलेगी!” गुस्से से ससुर की आंखें लाल पीले होने लगी थी -” इसके लिए तुम्हारे भाई ने मुझसे एक लाख रुपए लिया है!”
” क्या ? एक लाख रुपए! मतलब भाई ने एक लाख रुपए लेकर मुझे तुम्हारे हाथ बेच दिया है?” भाई की जेब में सौ सौ का नोट का राज अकस्मात खुल गया था।
भाई के प्रति मेरे दिल में जो कुछ थोड़ी बहुत इज्जत बची थी, इस रहस्योद्घाटन से बिना जरबंध की साया (पेटिकोट) की तरह पैर के नीचे आ गया। मुझे छला गया था। धोखा हुआ था मेरे साथ। अब मेरा मन पुरी तरह बदल गया था। भाई ने अपनी लाड़ली बहन को इन बहेलियों के हाथ बेच दिया था। उस बहन को जो कभी उसकी लाड़ली हुआ करती थी। नौकरी न ले पाने का बदला भाई ने इस तरह लिया था।
” हां, हां, एक लाख रुपए में तुमको हमने खरीद लिया है और अब तुम वही करोगी जो हम चाहेंगे!” ससुर गुस्से में बोल रहा था।

गुस्से से मैं भी धधक उठी थी ‌” पैसा आपने भाई को दिया है, वही आपका काम करेगा!” मेरा जवाब भी सख्त था।
” हम तुम्हें तीन दिन का समय देते है। नोमिनी में लखपत का नाम चढ़ा दो,हम तुम्हारी सारी गलतियां माफ़कर देंगे और इस बच्चे को भी अपना लेंगे!” ससुर का थथुना फुल पिचक रहा था। हमने कोई जवाब नहीं दिया।
रह रहकर भाई की जेब का सौ सौ का नोट आंखों के सामने घूमने लगा था। मुंह से गाली जैसे शब्द निकल गया ” तू मेरा भाई नहीं,कसाई है, नौकरी नहीं ले सका तो बहन को इन कसाईयों के हाथों बेच दिया। तनिक भी नहीं सोचा कि तुम्हारी लाडली बहन पर क्या बीतेगी और पैसे की बात जानेगी तो उस पर क्या गुजरेगी ” आंसू झरझर बहने लगा था। बेटे को सीने से चिपकाए रात भर रोती रही।
ऑफिस में करेला काकी अब मुझे बेटी सा स्नेह देने लगी थी। अकस्मात् उस पर आए बदलाव से जहां मैं अभिभूत थी वहीं चकित भी थी। एक दिन बातों-बातों में कहने लगी ” शुरू शुरू में मैं तुम्हें गलत समझा। लगता था तुम गलतकर रही हो, छोटे बड़े की तुम्हें कदर नहीं है। बिगड़ गई है,चालू लड़की बन गई है। जब सच्चाई जाना तो बहुत दुख हुआ। तुम्हारे साथ जो कुछ हुआ, बहुत ग़लत हुआ। लेकिन इसमें सारा दोष तुम्हारे भाई का है, किसी सूरत में उसे ऐसा नहीं करना चाहिए था!” करेला काकी में आए बदलाव समझ में आ गई थी। और यह मेरे हित में था

धीरे धीरे सब कुछ साफ़ होता जा रहा था। संबंधों में खटास, रिश्तों में दरार। लखपत को भी उन लोगों ने मेरे कमरे में आने से रोक दिया था। बच्चे से दूरकर दिया था। ऑफिस आने के पहले बेटे को उसकी नानी के पास पहुंचा आती थी। अब मां को भी समझ में यह बात आ गई थी कि बेटी मेघना के साथ ज्यादती हुई है। आज मैं आत्मसात करती हूं। तो खुद को अकेला पाती हूं। उस घर को न मेरी जरूरत थी, न मैं उस घर के लिए सही थी। और यह सारा खेल महीना दिन में मिलने वाली मेरी तनख्वाह से जुड़ी हुई थी। ससुर का तीन दिन का दिया हुआ समय समाप्त हो रहा था। ऊपर से उसका यह नया एलान ” तुम इस घर में तभी रह सकती है, जब हमारा कहा मानोगी। तुम वही करोगी,जो मैं चाहूंगा, पूरा वेतन मेरे हाथ में आना चाहिए,पे स्लीप के मुताबिक, जितनी तुम्हें जरूरत होगी, मैं दूंगा।”
कई रातों के जागने के बाद मैं आज इस नतीजे पर पहुंची थी कि एक तरफ मेरा सारा जीवन है। सारी उम्र बाकी है और दूसरी तरफ ससुर का फरमान। सब कुछ गडमड सा लग रहा था। दिमाग में सवाल ही सवाल! विचारों का द्वंद्व अलग! मन को मथने लगा था। आज उसके साथ कौन खड़ा है ?
“ भाई नहीं…?”
“ पति…नहीं ?”
“ ससुराल नहीं…?”
सारे रिश्ते स्वार्थ पर टिके हुए थे। तभी बगल में सो रहे बेटे की देह पर हाथ चला गया। कुछ देर तक अपलक बेटे को देखती रही। मन ही मन सोचती रही। अब तो यही है उसका सब कुछ। आंखों का तारा! जिंदगी का सहारा! यह जिंदगी भी कहां रूकती है किसी के सहयोग की आस में!
वैसे भी घर, सुरक्षा और सम्मान जब शर्त में बदल जाए तो!
ऑफिस पहुंचकर सबसे पहले मैंने परियोजना पदाधिकारी के नाम एक आवेदन लिखा ” मेरी सेवा पुस्तिका में ” नोमिनी ” के रूप में मेरे पुत्र संतोष कुमार का नाम दर्ज करने की असीम कृपा प्रदान करेंगे। “
आवेदन के साथ जन्म प्रमाण पत्र संलग्न किया और खुद परियोजना पदाधिकारी के ऑफिस में जमा करने चल पड़ी। सुधीर बाबू पहले से वहां मौजूद थे!
उन्होंने एक चाभी भी पकड़ा दी “ तुम्हारे लिए तीन कमरों का कंपनी का स्टाफ क्वार्टर एलॉट करवा दिया है, उसमें सारी व्यवस्थाएं भी करवा दी है,जब चाहो वहां शिफ्टकर सकती हो!”

— श्यामल बिहारी महतो

*श्यामल बिहारी महतो

जन्म: पन्द्रह फरवरी उन्नीस सौ उन्हतर मुंगो ग्राम में बोकारो जिला झारखंड में शिक्षा:स्नातक प्रकाशन: बहेलियों के बीच कहानी संग्रह भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित तथा अन्य दो कहानी संग्रह बिजनेस और लतखोर प्रकाशित और कोयला का फूल उपन्यास प्रकाशित पांचवीं प्रेस में संप्रति: तारमी कोलियरी सीसीएल में कार्मिक विभाग में वरीय लिपिक स्पेशल ग्रेड पद पर कार्यरत और मजदूर यूनियन में सक्रिय