लघुकथा

रिश्ते

“मैं ये देख रही हूँ ..धीरे-धीरे बहुत से रिश्ते तुमसे छूट गये।”
ज्योति के बात पर सत्या हँसपड़ी।
“तुम कैसे साथ हो?? “
“हमारा तो बचपन का साथ है .. जड़ से जुड़े हैं , सब सुख-दुख समझते हैं। ” ज्योति ने कन्धे पर हाथ रख कर कहा।
“और तुमने खुद ही समझा दिया, बस इतने ही और ऐसे ही रिश्तें जरुरी हैं मेरे लिए । “
“सबके लिए”। सत्या की बात से ज्योति बिल्कुल सहमत थी ।

—- साधना सिंह

साधना सिंह

मै साधना सिंह, युपी के एक शहर गोरखपुर से हु । लिखने का शौक कॉलेज से ही था । मै किसी भी विधा से अनभिज्ञ हु बस अपने एहसास कागज पर उतार देती हु । कुछ पंक्तियो मे - छंदमुक्त हो या छंदबध मुझे क्या पता ये पंक्तिया बस एहसास है तुम्हारे होने का तुम्हे खोने का कोई एहसास जब जेहन मे संवरता है वही शब्द बन कर कागज पर निखरता है । धन्यवाद :)