अंधेरों से आगे
आँख में उमड़ते आंसू थमने का नाम न ले रहे थे। परिचितों को देखकर मन की संवेदनाएं और मुखर हो उठी थीं। एकलौते युवा प्रबंधक बेटे की दुर्घटना में हुई मौत उसे बेसहारा कर गई थी। सुखद भविष्य के सपने दिखाकर ईश्वर ने उसे कहाँ ला पटका था?
उसके स्कूल की टीचर्स के जाने के बाद, प्रिंसिपल मैम उसके पास आकर धीरे से बोलीं, “एक बहन के नाते आपसे कह रही हूँ, जीना तो नियति है– हंस के जियो या रोकर जियो। घर रहोगी तो कोई न कोई आकर दिन भर रुलाता रहेगा। पर स्कूल में बच्चों के बीच रहकर आप अपना दुःख भुलाकर मन शांत कर पाएंगी। मन करे तो क्लास लेना। पर कोशिश करना अधिक से अधिक समय बच्चों के बीच रहना। यही आपको डिप्रेशन से दूर रखने के लिए एकमात्र उपाय है। यदि मेरी बातें कुछ ठीक लगें, तो सोमवार से स्कूल आ जाइएगा।”
प्रिंसिपल मैम के जाने के बाद वह सोचती रही। उसे लगा कि मैम ठीक कह रही थीं। घर में अकेले रहकर या लोगों के आने पर बेटे को बार बार याद कर वह और टूटती चली जाएगी। बच्चों के बीच रहकर शायद वह अपने को संभाल पाए।
सोमवार को वह अनमने मन से स्कूल चली गई। प्रार्थना सभा के पश्चात वह सोच ही रही थी कि कहाँ जाए? तभी उसकी कक्षा के दो बच्चे दीक्षा व राजेश उसके पास आए। उसके पैर छुए व बोले, “मैंम हम भी तो आपके ही बच्चे हैं। क्या आप हमें पढ़ाकर अपने बेटे जैसा होनहार नहीं बनाएंगी?”
वह दोनों को देखती रह गई। उसे लगा कि उसके सामने उसकी पोती व पोता खड़े हैं, जो उससे कह रहे हैं कि हमारे पापा तो हमें आपके सहारे छोड़ गए। अब आप ही हमें पढ़ा लिखाकर पापा जैसा बनाएं। दादी, बोलो बनाओगी ना।”
उसकी सोई ममता जाग उठी। उसने दोनों बच्चों को सीने से लगा लिया और वह एक नए विश्वास के साथ उन बच्चों को लेकर क्लास रूम की ओर बढ़ गई।
— विष्णु सक्सेना