उम्मीद का दिया
मोबाइल में मन नहीं लग रहा था स्नेहा का, रवीश के आने का कोई संदेश जो नहीं आ रहा था. विमनस्क-सी वह यूं ही मोबाइल को स्क्रोल कर रही थी.
“पहले वाले लोग कितने मजे में रहते थे! बाहर घूमना-फिरना-खेलना कितना अच्छा लगता होगा!” उर्मिल ने मोबाइल पर घर के दरवाजे से बाहर झांकती हुई एक लड़की की तस्वीर देखकर खुद से कहा.
“यह लड़की शायद इसलिए बाहर झांककर मौसम का जायजा लेना चाह रही है, ताकि घूमने-फिरने-खेलने जा सके!”
“नहीं-नहीं! वह तो इसलिए झांक रही होगी, पता चले कि उसकी उम्र की सहेलियां आईं कि नहीं!”
“ओहो, ये तो डाक बाबू के आने की प्रतीक्षा कर रही होगी!”
“पर वो तो मां के जमाने की बात थी, अब कहां की डाक और कहां के डाक बाबू!”
“कभी-कभी मन की बात सच हो जाती है.” कभी मां ने कहा था. स्नेहा जाने कहां पहुंच गई थी!
“मां तो ऐसी ही कई बातें बोलती रहती हैं, इससे क्या होगा!”
“फिर भी एक बार बाहर झांककर देखने में हर्ज ही क्या है!” मन ने एक बार फिर निहोरा किया.
असमंजस में उसने सचमुच बाहर झांक कर देख ही लिया.
“रवीश!” उम्मीद का दिया जल गया था.
— लीला तिवानी