कहानी

बादल छंट चुके थे

‘‘दी, वो उस दिन मैंने आपको कुछ बताया था ना? वो….’’ उधर से आवाज़ बहुत दबी-दबी आ रही थी।
‘‘क्या बताया था रे? और ये तेरी आवाज़ को क्या हुआ है?? ढंग से बोल। किस दिन की क्या बात कर रहा है?’’ अंजली ने कुछ डांटते हुए स्वर में उत्तर दिया। दूसरी ओर उसका मुँह बोला भाई हरीश था।
उधर से कुछ आवाज़ नहीं आई तो वह फिर बोली, ‘‘कुछ परेशान-सा लग रहा है हरीश, क्या हुआ??’’ अंजली को उलझन होने लगी थी। उसे लगा कहीं कुछ गलत तो नहीं हो गया हरीश के साथ।
‘‘वो…वो दी, मैंने आपको वो बात बताई थी….,’’ वह फिर चुप हो गया। पर इस बार आवाज़ कुछ साफ थी।
‘‘कौन-सी बात? कुछ बकेगा या फिर मैं फोन रखूँ?’’ अंजली खीजने लगी थी।
‘‘वो दीदी! हॉलैण्ड……, अंजली समझ गई कि हरीश क्या कहना चाहता है परन्तु उसने अनजान बनते हुए उत्तर दिया,
‘‘हॉलैण्ड? वहाँ क्या है तेरा?? कोई दोस्त है क्या???’’
‘‘क्या कह रही हो दीदी! पिछले हफ्ते कितनी देर तक तो हमारी बात हुई थी इस बारे में और आप….?’’
‘‘किस बारे में? पता नहीं क्या बक रहा है। कुछ काम की बात है तो बता नहीं तो मैं खाली नहीं बैठी। मेरे पास बहुत काम है। अच्छा-खासा उपन्यास पढ़ रही थी। सारा मूड चौपट कर दिया।’’ उसने थोड़ा गुस्सा दिखाया तो उधर से फिर आवाज़ आई,
‘‘दीदी! सच में आप को हॉलैण्ड वाली बात याद नहीं है?’’ हरीश को यकीन ही नहीं हो रहा था। यह कैसे हो सकता है?
‘‘मेरा भेजा मत चाट, इतना अच्छा उपन्यास हाथ लगा है। वैसे ही पढ़ने का समय नहीं मिलता और तुम मेरा वक्त खराब करने में लगे हो। आज क्लीनिक में मरीज नहीं हैं तो कुछ पढ़ ले, या घर चला जा और शशि का दिमाग खा। मैं बंद कर रही हूँ फोन।’’ और अंजली ने सचमुच फोन बंद कर दिया और सोफे पर आ बैठी। क्या सचमुच उसे कुछ याद नहीं था? अरे सब याद था, पर वह हरीश को लज्जित नहीं करना चाहती थी। अन्यथा वह फिर से तनाव में आ जाता।
हाँ! उस दिन हरीश ने उसे कुछ ऐसी बात बताई थी कि वह थोड़ी देर के लिए तो घबरा ही गई थी। हरीश ने उसे हॉलैण्ड की टिकट भी दिखाई थी, जो उसे किसी ने भेजी थी। यदि वह घूमने-फिरने या किसी और काम से हॉलैण्ड जाता तो कोई खास बात नहीं थी, पर वह तो सब कुछ छोड़-छाड़कर हॉलैण्ड जा रहा था, वह भी अकेला, बिना परिवार के, बिना इसके परिणाम को सोचे। वह तो भला हुआ कि अंजली अचानक ही उस दिन अपने घुटने के दर्द की दवा लेने उसके क्लीनिक चली गई तो सारी पोल-पट्टी खुल गई, वरना बहुत बड़ा अनर्थ हो जाता।
अंजली को उलझन होने लगी, उसका मन किया कि वह अभी जाकर हरीश को घेर ले परन्तु उसने सोचा, इस तरह से कहीं वह सचमुच ही तनाव में न आ जाए। आज उसने कार्यालय से छुट्टी ले रखी थी। सोचा था कुछ बाजार के काम निपटा लेगी लेकिन अब उसका मन खिन्न हो गया था। अंजली ने सोफे की पीठ से टेक लगा कर पैर फैला लिए। उसकी आँखों के आगे रह-रहकर वह सलोनी सूरत मंडराने लगी जिसका फोटो उसे हरीश ने मोबाइल पर दिखाया था। वही फोटो जड़ थी इस हॉलैण्ड वाले किस्से की।
…….
हरीश उसके छोटे भाई दिग्विजय का बचपन का साथी था। दोनों के घर एक ही गली में होने से कभी वह उनके घर में रहता तो कभी वे लोग उस के घर में। उसे कभी लगा ही नहीं कि हरीश उसका भाई नहीं है। बड़े होने के बाद सबके रास्ते अलग होने ही थे। हरीश डॉक्टर बन गया था। अंजली को सिटी मैजिस्ट्रेट कार्यालय में नौकरी मिल गई और शादी के बाद अपने शहर के दूसरे मुहल्ले में ही चली गई। डॉक्टर हरीश ने अपना क्लीनिक घर के निचले हिस्से में खोल लिया था और दिग्विजय फौज में चला गया था। लम्बा समय गुजर गया था और इस समय तो सभी उम्र की ढलान पर थे।
अंजली को कभी मायके की कमी हरीश और ना ही उसकी पत्नी शशि ने कभी महसूस होने दी। त्योहारों पर कभी अंजली का परिवार हरीश के घर होता तो कभी हरीश का परिवार उसके घर। दोनों घरों के बच्चे भी व्यवस्थित हो चुके थे। रहा दिग्विजय तो अभी उसकी नौकरी के बहुत सारे साल बचे हुए थे। वह ऑफिस स्टॉफ में होने के कारण परिवार को साथ ही रखता था। कभी सब मिलकर उसके पास चले जाते, इसी तरह से दिन मजे-मजे में गुजर रहे थे कि यह हॉलैण्ड वाला किस्सा बीच में तालाब के पानी में कंकरी जैसा आ गया।
दिग्विजय और हरीश की शादी में एक वर्ष का अन्तर था। दोनों अपने जीवन में बहुत खुश थे। दिग्विजय के दो बेटे हुए और हरीश के दो बेटियाँ और एक बेटा। हरीश को इस बात का बहुत दुख रहता कि बेटा लाड़-प्यार में बिगड़ गया है और पढ़ाई में ध्यान नहीं देता। बस चाट-पकौड़ी का चस्का ऊपर से और लगा लिया था। फिजूलखर्च हो गया था। जो मन में आता वही करता। फिर वह अपने मन को समझाता कि अभी छोटा है, सँभल जाएगा। पर वह नहीं सँभला और अब उन्नीस बरस का हो चुका था।
अंजली का गला सूखने लगा तो वह उठी और सामने ही डाइनिंग टेबल पर रखे जग से पानी गिलास में उण्डेलकर पीने लगी। पानी पीकर उसने सिर को एक झटका दिया जैसे कोई बोझ-सा उतारकर फेंक रही हो और वापस आकर वह फिर से सोफे पर पसर गई। अब उसका मन न तो उपन्यास में लग रहा था और न ही बाजार जाने की इच्छा हो रही थी। उसकी स्मृति घूम-फिर कर फिर उसी फोटो पर जा अटकती जो उसे हरीश ने दिखाई थी। वाकई बेहिसाब सुन्दरता की मालिक थी वह महिला, जिसका चित्र हरीश के पास था।
हरीश ने उसका नाम सुखविन्दर बताया था। सिर के ऊपर बंधा बालों का जूड़ा उसकी सुन्दरता को कहीं भी हल्का नहीं कर रहा था। स्पष्ट था कि वह सिक्ख सम्प्रदाय से सम्बंध रखती थी। उसके कांधे पर काले फीते में किरपान भी लटक रही थी।
……..
‘‘हरीश!’’ उसने हरीश के कमरे के दरवाजे से पुकारा तो डॉक्टर हरीश ऐसे चौंका जैसे उसे किसी ने चोरी करते पकड़ लिया हो। अंजली ने बाहर बैठी अटैंडेंट से पूछा था कि डॉक्टर हरीश हैं क्या तो उसने बस सिर हिला कर हाँ कर दी थी। भीतर आकर अंजली ने देखा कि डॉक्टर हरीश टेबल पर दोनों पैर एक-दूसरे के ऊपर रखे आँख बंद किए कुर्सी पर अधलेटा पड़ा था और अब?
‘‘क्या हुआ हरीश? तबियत तो ठीक है न?’’ उसने पूछा
‘‘अरे दीदी! आप कब आईं? कुछ नहीं…कुछ नहीं….बस लंच में ऐसे ही थोड़ा आलस आ गया था। आइए, बैठिए।’’
‘‘आलस हूँ! तो तुम घबरा क्यों रहे हो?’’ अंजली ने बैठने के लिए कुर्सी खींच ली थी।
‘‘नहीं तो…’’ उसने सम्भलने का प्रयास किया, ‘‘आप इस समय कैसे? ऑफिस से छुट्टी ली है क्या?’’ उसने बात बदलने की कोशिश की।
‘‘हाँ! घुटने में बहुत दर्द हो रहा था, सोचा दवा ले ही आऊँ। घर और दफतर के बीच मैं तो चक्कर-घिन्नी बन गई हूँ। ले समोसे लाई हूँ, खाले गर्म-गर्म।’’ हरीश ने चाय बनवा ली और दोनों बैठकर चाय पीने लगे। अटेंडेंट अपनी चाय लेकर बाहर निकल गई थी। अंजली को पता था कि इस समय डॉक्टर हरीश किसी मरीज को नहीं देखता। इसलिए इस समय क्लीनिक में किसी और के होने का प्रश्न ही नहीं था। दोनों बातें कर रहे थे पर अंजली ने बहुत जल्दी पकड़ लिया कि आज हरीश कुछ परेशान तो जरूर है।
‘‘सच बता! परेशान क्यों है, क्या हुआ? घर में तो सब ठीक है न? सुमन के ससुराल में तो कोई गड़बड़ नहीं??’’ उसे लगा, शायद हरीश की नई ब्याही बेटी ससुराल में सामंजस्य न बना पा रही हो। इसलिए बाप का परेशान स्वाभाविक है।
‘‘नहीं दीदी! वह ससुराल में खुश है।’’
‘‘तो फिर क्या है?’’
‘‘क्या बताऊँ…कैसे बताऊँ….समझ में नहीं आ रहा। पर बताना तो पड़ेगा ही ना।’’ वह जैसे अपने आप से पूछ रहा हो।
‘‘अरे क्या हो गया भाई? ऐसी कौन सी विपदा आ पड़ी है कि बता भी नहीं सकता और छुपा भी नहीं सकता?? बता तो…शायद मैं कोई हल निकाल सकूँ।’’ अब अंजली गम्भीर हो गई थी। उसे महसूस हो रहा था कि मामला कुछ खास ही है, जिसे बताने में उसका यह भाई हिचक रहा है। उसने फिर उकसाया, ‘‘हरीश, बताना तो तुझे पड़ेगा ही नहीं तो मैं अभी घर जाकर शशि से पूछती हूँ, वह बता देगी। क्या हुआ है?’’
‘‘अरे नहीं दी! उसे कुछ मत बताना, आपको मेरी कसम। उसे कुछ पता भी नहीं है।’’
‘‘क्या पता नहीं है उसे? यह तुम दोनों के बीच दूरियाँ कब से आ गईं कि जो तुम्हें पता है वह उसे पता नहीं है? सच बता, अब मैं और बर्दाश्त नहीं कर सकती। जल्दी बोल।’’ पर डॉक्टर हरीश को फिर भी किसी सोच में पड़ा देख वह उठकर उसकी कुर्सी के पीछे खड़ी हो गई और उसका सिर सहलाने लगी। हरीश ने भी सिर को ढीला छोड़ दिया।
‘‘तुझे कभी भी अकल नहीं आएगी। बड़ा डॉक्टर बन गया है, पर मेरे सामने बड़ा नहीं बन सकता। बता मेरे भाई, क्यों परेशान है??’’
‘‘मैं अगले हफ्ते हॉलैण्ड जा रहा हूँ, टिकट आ गया है।’’ हरीश ने बड़ी दबी हुई आवाज़ में कहा।
‘‘क्यों? वहाँ क्या है?’’
‘‘है कोई, जो बुला रहा है।’’ वह उसी तरह सिर ढीला और आँख बंद किए बोल रहा था।
‘‘पर इससे पहले तो कभी हॉलैण्ड जाने की कोई बात सामने नहीं आई। कभी तुमने ऐसे किसी दोस्त के बारे में भी नहीं बताया जो हॉलैण्ड रहता हो। यह अचानक…? कितने दिन के लिए जा रहा है?’’
‘‘हमेशा के लिए।’’
‘‘पर ऐसा क्या हुआ, खुलकर बता। तू कह रहा है शशि को पता नहीं। तो फिर यह मामला क्या है?’’ अंजली बुरी तरह उलझ रही थी।
‘‘दीदी!’’ वह अचानक उठा और अंजली का हाथ पकड़कर उसे अपने सामने कुर्सी पर बैठा दिया। अब तो अंजली और भी चकरा गई, पर कुछ न समझकर भी चुप रही।
‘‘आप शशि को कुछ नहीं बताओगी इसका वचन दो।’’
‘‘ठीक है।’’
‘‘किसी को भी नहीं। कुसुम, लता या प्रमोद को भी नहीं।’’
‘‘वो तुम्हारे बच्चे हैं, जब तुम शशि को ही नहीं बताना चाह रहे तो बच्चों का तो कोई मतलब ही नहीं बनता।’’
अंजली के आश्वासन देने पर उसने एक बार फिर कुर्सी से सिर टिका लिया और आँखें बंद कर लीं। तभी बाहर से सूचना आई कि मरीज़ आने शुरू हो गये थे। अंजली उठ खड़ी हुई,
‘‘ठीक है, क्लीनिक बंद करके तुम रात को मेरे पास आओगे। तुम्हारे जीजा जी आज बाहर गये हुए हैं। यह मसला आज ही निपट जाना चाहिए। समझे ना?’’
‘‘जी दीदी। रात को आता हूँ।’’ घर लौटकर भी अंजली बहुत देर तक इसी मसले पर सोचती रही। आखिर ऐसा क्या हुआ कि वह अपना देश ही सदा के लिए छोड़कर जा रहा है और घर में किसी को पता भी नहीं। पर खैर, रात को तो आ ही रहा है, सबकुछ साफ हो जाएगा। वह सोचने लगी, कहीं प्रमोद ने तो कोई स्टंट नहीं कर दिया? नहीं इस बात का प्रमोद से क्या लेना-देना?
……….
हरीश अपने वादे के अनुसार क्लीनिक बंद करके अंजली के पास आ गया था। अंजली ने शशि को फोन करके कह दिया था कि हरीश का खाने पर इंतज़ार न करे। शशि ने हँसते हुए कहा, ‘‘दीदी! क्या खास बनाया है भाई के लिए? मैं भी आ रही हूँ।’’ तो अंजली ने कहा,
‘‘नहीं, आज हम दोनों बहन-भाई के बीच तीसरा नहीं चाहिए।’’ और फोन रख दिया।
‘‘हाँ! अब बोलो। क्या परेशानी है?’’ अंजली ने खाना प्लेट में निकालते हुए पूछा, ‘‘क्यों जाना चाहते हो हॉलैण्ड और किसके बुलाने पर जा रहे हो?’’ तो हरीश ने बिना कोई जवाब दिए मोबाइल से निकालकर वह फोटो अंजली को दिखा दिया।
लगभग 40/45 की वह सिक्ख महिला ग़ज़ब की सुन्दर थी।
‘‘यह कौन है?’’
‘‘यह सुखविन्दर है। हॉलैण्ड में रहती है।’’
‘‘ओह! तुम कैसे जानते हो इसे?’’
‘‘फेसबुक पर मित्रता हुई थी।’’
‘‘क्या करती है?’’
‘‘हॉलैण्ड में बहुत बड़ी बिज़नेस कम्पनी की मालिक है।’’
‘‘और कौन-कौन हैं इसके घर में?’’
‘‘अकेली रहती है।’’
‘‘तो?’’
‘‘अब मैं इससे प्यार करने लगा हूँ।’’
‘‘हूँ! यह किस्सा कब से चल रहा है?’’
‘‘हो गए हैं चार महीने।’’
‘‘तुमने इसकी प्रोफाइल चैक की है? हो सकता है आईडी फ़ेक हो।’’
‘‘नहीं! हमारी वीडियो चैटिंग होती है। इसके पूरे घर को देखा है मैंने।’’
‘‘तुम्हें क्या पता यह सच बोल रही है या झूठ?’’ अंजली को समझ में आ रहा था कि मामला गम्भीर हो चुका है। उसे कोई भी निर्णय लेने से पहले बहुत सोचना पड़ेगा।
‘‘नहीं दीदी! मैंने समय कुसमय कॉल करके देख लिया है। वह मुझसे बहुत प्यार करने लगी है और अब मेरे बिना नहीं रह सकती। मुझे वहीं क्लीनिक खोल देगी। बहुत पैसा है उसके पास। बल्कि उसने लाइसेंस के लिए अप्लाई भी कर दिया है। मैंने भी साइन करके कागज़ भेज दिए थे।’’
‘‘हूँ! अरे खाना तो खाले। बस बोलता ही रहेगा। दिग्गी से बात की तुमने इस बारे में?’’
‘‘नहीं।’’
‘‘अच्छा किया, करना भी मत। अब यह बात मेरे और तुम्हारे बीच में ही रहेगी। समझे?’’ हरीश तो समझा या नहीं समझा पर अंजली खुद ही नहीं समझ पा रही थी कि इस मसले को कैसे सुलझाए। डॉक्टर के तौर पर हरीश का अच्छा-खासा नाम था शहर में। उसके क्लीनिक बंद होने की दशा में शशि, लता और प्रमोद तीनों के मुँह से निवाला छिन जाएगा। भले ही उनके लिए रहने को घर भी था और हरीश का बैंक बैलेंस भी था पर उस अपमान का क्या होगा जो वे सब झेलेंगे? बहुत गहरे सोच से उबरते हुए उसने पूछा,
‘‘हरीश! तुम्हें शशि से कोई शिकायत है क्या?’’
‘‘नहीं दीदी। उसने तो कभी शिकायत का मौका ही नहीं दिया। यही तो सबसे बड़ी परेशानी है कि उसे क्या कहूँ।’’
‘‘लता ने बी.ए. कर लिया है न, कोई रिश्ता आया है क्या?’’
‘‘हाँ दीदी, एक जगह से बात तो आई है। लता की चिन्ता नहीं मुझे पर इधर प्रमोद बहुत ही ज्यादा बिगड़ गया है। अब तो वह माँ के साथ बद्तमीजी भी करने लगा है।’’
‘‘ऐसी स्थिति में तुम इन दोनों को प्रमोद के आसरे छोड़कर जाओगे? अभी तक तीनों तुम्हारी कमाई पर ही निर्भर हैं। इनका क्या होगा यह भी सोचा है क्या?’’
‘‘मैं क्या करूँ दीदी! इन्सान हूँ, और अब सुखविन्दर भी मानती ही नहीं। वह जिद करके बैठी है कि बस मुझे हर हाल में उसके पास होना चाहिए।’’
‘‘आखिर शशि को किस बात की सज़ा दोगे तुम? रहा प्रमोद! जो अभी तुम्हारी कमाई पर भी माँ के साथ बद्तमीजी से पेश आता है तो तुम्हारे बाद क्या करेगा माँ और बहन के साथ? तुम सुखविन्दर से बात करना बंद कर दो, समझे। मैं तुम्हें हरगिज़ यह काम नहीं करने दूँगी।’’
‘‘मैं नहीं करता बात तो वही फोन करने लगती है।’’
‘‘मत उठाओ फोन।’’
‘‘लगातार फोन बजने लगता है तो उठाना ही पड़ता है, भारत आने की भी धमकी देती है।’’
‘‘बदल डालो नम्बर, घर का पता तो नहीं दे दिया?’’
‘‘नहीं, पर वह फेसबुक पर मुझे खोज लेती है और मरने की धमकी देती है। कहती है आत्महत्या कर लेगी।’’
‘‘तो कर लेने दो। कभी सोचा है तुमने, सुमन के ससुराल वाले सुमन का हाल क्या करेंगे? लता की शादी कैसे होगी? इस आवारा लड़के का क्या होगा जिसे तुम्हारे लाड ने बिगाड़ा है? सोचो हरीश, सोचो। ठंडे दिमाग से सोचो। ये चार जिन्दगियाँ तुम्हारे साथ जुड़ी हुई हैं और तुम क्या करने जा रहे हो। अपने ज़रा से झूठे सुख के लिए, और कितने दिन का सुख? जब तुम्हें इन सब की याद वहाँ परदेस में आएगी तो तुम कभी चैन से नहीं बैठ पाओगे।’’
‘‘इतने दिन से यही तो सोचकर परेशान था दीदी! उसने तो टिकट भी भेज दिया है, यह देखो।’’ डॉक्टर हरीश ने टिकट जेब से निकाल कर अंजली के हाथ में पकड़ा दिया। अंजली ने एक मिनट के लिए टिकट को बड़े गौर से देख और उसके कई टुकड़े करके उसे कूड़ेदान में फेंक आई। हरीश चुपचाप उसे देखता रहा, फिर एक गहरा साँस लेते हुए बोला, ‘‘आज पता चला कि बड़ी बहन दोस्त भी हो सकती है। आज तुमने मुझे और मेरे परिवार को बचा लिया दीदी।’’ उसने उठकर अंजली के पैर छू लिए और वहीं उसकी कुर्सी के पास जमीन पर बैठकर सिर उसकी गोद में रख दिया और फूट-फूटकर रोने लगा। अंजली ने एक गहरा साँस लिया। बादल छंट गये थे, वह प्यार से हरीश के सिर को सहलाती रही। फिर धीरे से उसे उठाते हुए बोली, ‘‘उठ! उठकर हाथ-मुँह धो और घर जा। काफी रात हो गई है और भूल जा सब कुछ।’’
दो दिन बाद वह फिर उसके क्लीनिक चली गई, हरीश उसे देखकर घबरा गया। ‘‘दीदी! शशि से मिली थीं क्या?’’
‘‘नहीं तो! क्यों क्या हुआ?’’
‘‘कुछ नहीं बस ऐसे ही पूछ लिया।’’ उसकी आँखों में अंजली ने एक भय स्पष्ट देखा था। वह जल्दी ही वापस लौट आई। अब वह पूरी तरह आश्वस्त थी। डॉक्टर हरीश ने फोन नम्बर बदल लिया था। क्लीनिक के बाहर नया नम्बर लिखा हुआ था। आज जब उसे हरीश का फोन आया तो उसे हरीश के स्वर में वही भय दिखाई दिया। इसीलिए वह हॉलैण्ड वाली बात से ही मुकर गई कि उसे कुछ भी याद नहीं है। सचमुच बादल छंट चुके थे, उसे तसल्ली थी कि उसके निर्णय से एक परिवार बिखरने से बच गया।

— आशा शैली

*आशा शैली

जन्मः-ः 2 अगस्त 1942 जन्मस्थानः-ः‘अस्मान खट्टड़’ (रावलपिण्डी, अब पाकिस्तान में) मातृभाषाः-ःपंजाबी शिक्षा ः-ललित महिला विद्यालय हल्द्वानी से हाईस्कूल, प्रयाग महिलाविद्यापीठ से विद्याविनोदिनी, कहानी लेखन महाविद्यालय अम्बाला छावनी से कहानी लेखन और पत्रकारिता महाविद्यालय दिल्ली से पत्रकारिता। लेखन विधाः-ः कविता, कहानी, गीत, ग़ज़ल, शोधलेख, लघुकथा, समीक्षा, व्यंग्य, उपन्यास, नाटक एवं अनुवाद भाषाः-ः हिन्दी, उर्दू, पंजाबी, पहाड़ी (महासवी एवं डोगरी) एवं ओडि़या। प्रकाशित पुस्तकंेः-1.काँटों का नीड़ (काव्य संग्रह), (प्रथम संस्करण 1992, द्वितीय 1994, तृतीय 1997) 2.एक और द्रौपदी (काव्य संग्रह 1993) 3.सागर से पर्वत तक (ओडि़या से हिन्दी में काव्यानुवाद) प्रकाशन वर्ष (2001) 4.शजर-ए-तन्हा (उर्दू ग़ज़ल संग्रह-2001) 5.एक और द्रौपदी का बांग्ला में अनुवाद (अरु एक द्रौपदी नाम से 2001), 6.प्रभात की उर्मियाँ (लघुकथा संग्रह-2005) 7.दादी कहो कहानी (लोककथा संग्रह, प्रथम संस्करण-2006, द्वितीय संस्करण-2009), 8.गर्द के नीचे (हिमाचल के स्वतन्त्रता सेनानियों की जीवनियाँ-2007), 9.हमारी लोक कथाएं भाग एक से भाग छः तक (2007) 10.हिमाचल बोलता है (हिमाचल कला-संस्कृति पर लेख-2009) 11. सूरज चाचा (बाल कविता संकलन-2010) 12.पीर पर्वत (गीत संग्रह-2011) 13. आधुनिक नारी कहाँ जीती कहाँ हारी (नारी विषयक लेख-2011) 14. ढलते सूरज की उदासियाँ (कहानी संग्रह-2013) 15 छाया देवदार की (उपन्यास-2014) 16 द्वंद के शिखर, (कहानी संग्रह) प्रेस में प्रकाशनाधीन पुस्तकेंः-द्वंद के शिखर, (कहानी संग्रह), सुधि की सुगन्ध (कविता संग्रह), गीत संग्रह, बच्चो सुनो बाल उपन्यास व अन्य साहित्य, वे दिन (संस्मरण), ग़ज़ल संग्रह, ‘हण मैं लिक्खा करनी’ पहाड़ी कविता संग्रह, ‘पारस’ उपन्यास आदि उपलब्धियाँः-देश-विदेश की पत्रिकाओं में रचनाएँ निरंतर प्रकाशित, आकाशवाणी एवं दूरदर्शन के विभिन्न केन्द्रों से निरंतर प्रसारण, भारत के विभिन्न प्रान्तों के साहित्य मंचों से निरंतर काव्यपाठ, विचार मंचों द्वारा संचालित विचार गोष्ठियों में प्रतिभागिता। सम्मानः-पत्रकारिता द्वारा दलित गतिविधियों के लिए अ.भा. दलित साहित्य अकादमी द्वारा अम्बेदकर फैलोशिप (1992), साहित्य शिक्षा कला संस्कृति अकादमी परियाँवां (प्रतापगढ़) द्वारा साहित्यश्री’ (1994) अ.भा. दलित साहित्य अकादमी दिल्ली द्वारा अम्बेदकर ‘विशिष्ट सेवा पुरुस्कार’ (1994), शिक्षा साहित्य कला विकास समिति बहराइच द्वारा ‘काव्य श्री’, कजरा इण्टरनेशनल फि़ल्मस् गोंडा द्वारा ‘कलाश्री (1996), काव्यधारा रामपुर द्वारा ‘सारस्वत’ उपाधि (1996), अखिल भारतीय गीता मेला कानपुर द्वारा ‘काव्यश्री’ के साथ रजत पदक (1996), बाल कल्याण परिषद द्वारा सारस्वत सम्मान (1996), भाषा साहित्य सम्मेलन भोपाल द्वारा ‘साहित्यश्री’ (1996), पानीपत अकादमी द्वारा आचार्य की उपाधि (1997), साहित्य कला संस्थान आरा-बिहार से साहित्य रत्नाकर की उपाधि (1998), युवा साहित्य मण्डल गा़जि़याबाद से ‘साहित्य मनीषी’ की मानद उपाधि (1998), साहित्य शिक्षा कला संस्कृति अकादमी परियाँवां से आचार्य ‘महावीर प्रसाद द्विवेदी’ सम्मान (1998), ‘काव्य किरीट’ खजनी गोरखपुर से (1998), दुर्गावती फैलोशिप’, अ.भ. लेखक मंच शाहपुर (जयपुर) से (1999), ‘डाकण’ कहानी पर दिशा साहित्य मंच पठानकोट से (1999) विशेष सम्मान, हब्बा खातून सम्मान ग़ज़ल लेखन के लिए टैगोर मंच रायबरेली से (2000)। पंकस (पंजाब कला संस्कृति) अकादमी जालंधर द्वारा कविता सम्मान (2000) अनोखा विश्वास, इन्दौर से भाषा साहित्य रत्नाकर सम्मान (2006)। बाल साहित्य हेतु अभिव्यंजना सम्मान फर्रुखाबाद से (2006), वाग्विदाम्बरा सम्मान हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग से (2006), हिन्दी भाषा भूषण सम्मान श्रीनाथद्वारा (राज.2006), बाल साहित्यश्री खटीमा उत्तरांचल (2006), हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग द्वारा महादेवी वर्मा सम्मान, (2007) में। हिन्दी भाषा सम्मेलन पटियाला द्वारा हज़ारी प्रसाद द्विवेदी सम्मान (2008), साहित्य मण्डल श्रीनाथद्वारा (राज.) सम्पादक रत्न (2009), दादी कहो कहानी पुस्तक पर पं. हरिप्रसाद पाठक सम्मान (मथुरा), नारद सम्मान-हल्द्वानी जिला नैनीताल द्वारा (2010), स्वतंत्रता सेनानी दादा श्याम बिहारी चैबे स्मृति सम्मान (भोपाल) म.प्रदेश. तुलसी साहित्य अकादमी द्वारा (2010)। विक्रमशिला हिन्दी विद्यापीठ द्वारा भारतीय भाषा रत्न (2011), उत्तराखण्ड भाषा संस्थान द्वारा सम्मान (2011), अखिल भारतीय पत्रकारिता संगठन पानीपत द्वारा पं. युगलकिशोर शुकुल पत्रकारिता सम्मान (2012), (हल्द्वानी) स्व. भगवती देवी प्रजापति हास्य-रत्न सम्मान (2012) साहित्य सरिता, म. प्र. पत्रलेखक मंच बेतूल। भारतेंदु साहित्य सम्मान (2013) कोटा, साहित्य श्री सम्मान(2013), हल्दीघाटी, ‘काव्यगौरव’ सम्मान (2014) बरेली, आषा षैली के काव्य का अनुषीलन (लघुषोध द्वारा कु. मंजू षर्मा, षोध निदेषिका डाॅ. प्रभा पंत, मोतीराम-बाबूराम राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय हल्द्वानी )-2014, सम्पादक रत्न सम्मान उत्तराखण्ड बाल कल्याण साहित्य संस्थान, खटीमा-(2014), हिमाक्षरा सृजन अलंकरण, धर्मषाला, हिमाचल प्रदेष में, हिमाक्षरा राश्ट्रीय साहित्य परिशद द्वारा (2014), सुमन चतुर्वेदी सम्मान, हिन्दी साहित्य सम्मेलन भोपाल द्वारा (2014), हिमाचल गौरव सम्मान, बेटियाँ बचाओ एवं बुषहर हलचल (रामपुर बुषहर -हिमाचल प्रदेष) द्वारा (2015)। उत्तराखण्ड सरकार द्वारा प्रदत्त ‘तीलू रौतेली’ पुरस्कार 2016। सम्प्रतिः-आरती प्रकाशन की गतिविधियों में संलग्न, प्रधान सम्पादक, हिन्दी पत्रिका शैल सूत्र (त्रै.) वर्तमान पताः-कार रोड, बिंदुखत्ता, पो. आॅ. लालकुआँ, जिला नैनीताल (उत्तराखण्ड) 262402 मो.9456717150, 07055336168 [email protected]