ग़ज़ल
ओस क्यूँ बिखरी हुई है घास पर?
कौन यह रोता रहा है रात भर?
अब नहीं दिखती रहम की बानगी,
आदमी होने लगा है जानवर।
सैकड़ों मुश्किल सही, रख हौसला
रास्ता जद्दोजहद से पार कर।
मंज़िलों की ओर बढ़कर देख तो,
सामने ख़ाली पड़ी है रहगुज़र।
सिंधु ही हर बिंदु का गंतव्य है,
एक दिन अस्तित्व होना है सिफ़र।
— बृज राज किशोर ‘राहगीर’