कविता

ऐ मानव, सुन जरा!

ऐ मानव, सुन जरा,

जीवन जीने के लिए  हैं,

रूक जरा, थम जरा,

खूब जी ले अपनी जिंदगी।।

खुदा की नेमत हैं जिंदगी,

परमात्मा का अनमोल उपहार,

निहार, सृष्टी रूप मनोहर,

रम्य प्रकृति, हराभरा संसार।।

क्यों रात -दिन भागमभाग,

आपा-धापी,  सतत व्यस्तता?

क्लेश,  तनाव, गहन चिंता,

दुख-दर्द सागर में डूबा रहता?

भौतिक चक्काचौंध से,

दिग्भ्रमित-सा हैं आदमी,

भूल गया प्यार-दुलार, संस्कार,

मानव धर्म,.संस्कृति, सदाचार।।

प्रकृति से करता छेडछाड़,

धरा का अंधाधुंध दोहन,

प्रदुषित हुआ पर्यावरण,

सीमेंट जंगल बनाता नादान ।।

आग बरसती रवि किरणें,

शीतल नहीं शशि, तारें,

नित नयी नयी आपदाएं,

महाविनाश लीला रचाएं।।

लोभ लालच की अनबुझ.प्यास

वैभव दौलत की अशेष आस,

दुष्कर्म की न.थाम पतवार,

सत्कर्म से हो जीवन श्रृंगार।।

डिसक्लेमर : ऊपर व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं

FROM WEB

*चंचल जैन

मुलुंड,मुंबई ४०००७८