तलब
फीकी चाय की
आदत लगी जबसे
मिठास जिंदगी की
मुंह चिढ़ाने लगी और
मैं ढूंढने में व्यस्त हूं
एक बड़े से कमरे का
एक छोटा सा कोना
एक मेज़,एक काठ की कुर्सी
एक डायरी और उंगली पर
नाचती मेरी कलम
लिखूं एक कहानी लंबी सी
कई बार पंक्तियों को
काटती हुई,कभी भाषा
तो कभी भावनाओं की
गलतियां सुधारती हुई
मिलेंगे उसमें प्रेमी
सपने देखेंगे और
वो ढूंढेंगे यथार्थ की जमीं
बोएंगे एक बीज संगीत का
उनके विरह में कानों में गूंजेगा
फिर उन्हे मिलाकर
अपनी दुनिया में लौट आऊंगी
काठ की कुर्सी सरका कर
एक और फीकी चाय की तलब लिए….
— सविता दास सवि