कविता

रक्षाबंधन का किस्सा

उसने बहुत चाहा कि मिले उसको भी
अपने हिस्से का प्यार,
शांत हो सके सबके व्यवहार से उठा
धधकता गुबार,
बस किये जा रही थी
सबके दिए आदेश और फरमानों पर अमल,
चोट खा खा घायल हो जाता था चित्त कोमल,
कभी तो बदलेंगे मिजाज सोच
भर जाते थे जख्म हरे,
वो मान बैठी थी नियति
अब करें तो क्या करें,
वो सोचा करती कि
क्या ऐसा ही होता है सभ्य समाज के
सभ्य परिवार का बर्ताव,
मेरे प्रति नजर नहीं आता
किसी का तनिक भी लगाव,
वो छू लेना चाहती थी
परिवार के अच्छे व्यवहार से आसमान,
ये भूलकर कि भरा पड़ा है
पुरूषों के बनाये नियमों से जहान,
मुझमें भी वही रक्त है मौजूद,
फिर क्यों नहीं नजर आ रहा मेरा वजूद,
खत्म हो गया उस बंधन पर भाइयों का विश्वास,
बहन के उठाये जाने वाले कदमों का
जब हो गया अहसास,
बर्तावों से आहत बहन ने जब
मांग लिया था जायदाद में अपना हिस्सा,
हथकड़ी लगने लगा वो धागा
और खत्म हो गया
हर वर्ष के रक्षाबंधन का किस्सा।

— राजेन्द्र लाहिरी

राजेन्द्र लाहिरी

पामगढ़, जिला जांजगीर चाम्पा, छ. ग.495554