सावन
बीत गए वर्षों ये सावन भी गया ।
बासन्ती रंगों का चोला भीग गया।
गगन में दर्द भरे मेघों का शोर बढ़े।
धरा रंग रंगीली धानी चूनर ओढ़े।
मयूरों के नृत्य निराले पंख सजीले।
कोयल के गीतों भरे राग सुरीले।।
नदियों ने भी सुर सरिता के राग छेड़े।
पर्वतों ने भी प्रेम प्रीत के तार छेड़े।
व्याकुलता इस मन को भरमाए।
पुष्प पुलकित भी आज़ सरमाए।
महकती हवाओं ने हृदय झकझोरा।
चारों ओर सघन वन में लपके कोहरा।।
— सन्तोषी किमोठी वशिष्ठ “सहजा”