आख़िर क्यों’
कायनात की पथरिली घाटियों में गूंज रहा है
चश्म-ए-नम लिए खुद को ढूंढती
तिरिया की वेदना का निनाद।
क्यों आहत नहीं होता उस आह की तपिश से झुलसते
गहरी नींद में गोते खाता
इक्कीसवीं सदी का आधुनिक समाज।
संवेदना सो रही है, या नज़र अंदाज़ हो रही है
आज़ादी की परिभाषा तलाशती
पूछ रही है हर वनिता नैनों में भरे सैंकड़ों सवाल।
रिवायतों के बोझ तले लदी कामिनी
स्वयं को स्थापित करने हेतु हर मोड़ पर
अपना पता ढूॅंढ़ रही है बेनाम ज़िंदगी से पाने निजात।
ज़माना भर लें चाहे कितनी ही ऊंची उड़ान
कुछ नारियों की पतंग जमी रहती है
धरती की जड़ों से जुड़ी पा नहीं सकती अपना मक़ाम।
सहमी सहमी सिसकियाॅं लेते सिमट रही
दरिंदों के हाथों लूटते कर रही पुकार
किन्तु धरती, आसमान सहित हर दिशा है विरान।
क्यूं रूह नहीं काॅंपती सियासतों की
शोषित सुंदरी की सुनकर गहन पुकार शायद
शिराओं में खून की जगह पानी बह रहा मूसलाधार।
सदके जाऊं तेरे ए दोगले समाज
पूजता भी नारी को फिर नारकीय यातनाओं से
नवाज़ते कुचल देता है नारी का आत्मसम्मान।
— भावना ठाकर ‘भावु’