अन्तर्मन का दीप जलायें
दीपों से अंधकार न मिटता, अन्तर्मन का, दीप जलायें।
प्रतीकों को छोड़ बर्ढ़े अब, स्वच्छता का, अलख जगायें।
अविद्या का अंधकार छोड़कर।
कुप्रथाओं का जाल तोड़कर।
आगे बढ़ो, विकास के पथ पर,
निराशाओं से मुँह मोड़कर।
उर घावों से भले ही पीड़ित, प्रेम से घावों को सहलायें।
दीपों से अंधकार न मिटता, अन्तर्मन का दीप जलायें।।
सूचना को, शिक्षा ना समझो।
जीना ही, वश लक्ष्य न समझो।
शिक्षा तो आचरण सुधारे,
मानवता की परीक्षा समझो।
पशुओं से भी निकृष्ट आचरण, शिक्षित वह कैसे कहलायें।
दीपों से अंधकार न मिटता, अन्तर्मन का दीप जलायें।।
पढ़ते कुछ, करते कुछ और हैं।
कर्तव्य नहीं, करते कुछ और हैं।
कथनी कुछ, करनी कुछ और ही,
दिखते कुछ, अन्दर कुछ और हैं।
पत्नी बनकर, ठगी कर रहीं, शिकार को प्रेम से, ये सहलायें।
दीपों से अंधकार न मिटता, अन्तर्मन का दीप जलायें।।