कविता

कितना सस्ता बिक रहा हूं मैं।

कितने जख्मों को पाला सीने में, बस जीता जा रहा हूं मैं।
कितने दुःख दर्द हो सीने में, मगर हंसता जा रहा हूं मैं।

कितने कड़वे घूंट हो मुंह में मगर पीता जा रहा हूं मैं।
ठगों ने लूटा है इस दुनिया में, बस लुटता ही जा रहा हूं मैं।

झूठों की इस दुनिया में, यहां तमाशा हो गया हूं मैं।
लोभ-लालच के इस खेल में, कितना दफन हो गया हूं मैं।

बेवजह,माया के इस जाल में, फंसते ही जा रहा हूं मैं।
झूठ की इस चासनी में, डूबता ही जा रहा हूं मैं।

देख सच के आइने में, झूठ से हाथ मिला रहा हूं मैं।
वक्त की बढ़ती चाल में, कदम मिला रहा हूं मैं।

इमान की कड़ियों को जोड़ने में, हर रोज़ मर रहा हूं मैं।
प्रतीक्षा की इन घड़ियों में, रोज़ आग पर चल रहा हूं मैं।

यथार्थ जिंदा है मेरे मन में, मगर खुशामद कर रहा हूं मैं।
दुनिया के इस बाज़ार में, कितना सस्ता बिक रहा हूं मैं।

— डॉ. कान्ति लाल यादव

डॉ. कांति लाल यादव

सहायक प्रोफेसर (हिन्दी) माधव विश्वविद्यालय आबू रोड पता : मकान नंबर 12 , गली नंबर 2, माली कॉलोनी ,उदयपुर (राज.)313001 मोबाइल नंबर 8955560773