कविता

मैंनें जीना छोड़ दिया

यह सच है कि मैंने जीना छोड़ दिया
आखिर ऐसा करके कौन सा अपराध कर दिया।
आप ही बताओ मुझे
जीकर आखिर क्या पा रहा हूँ
जीना छोड़कर जो गँवाने जा रहा हूँ।
मेरी समझ से कुछ भी तो नहीं
आपके पास भी तो मेरे प्रश्न का उत्तर नहीं है
क्योंकि आपको सिर्फ जीने से मतलब है।
मगर मैं इस तरह नहीं जी सकता
क्योंकि मैं जीना नहीं जिंदा रहना चाहता हूँ,
दिन, महीने, साल या सौ दो सौ साल तक
मैं जीना चाहता हूँ समय सीमा पार तक,
जिसका कोई आंकलन, अनुमान न हो,
हो भी तो वो हम आप नहीं आने वाली पीढ़ियां करें।
मगर इसके लिए जीना नहीं जिंदा रहना जरूरी है,
और जिंदा रहने के लिए
लीक से हटकर चलना जरूरी है।
आप सहमत हैं या नहीं
इससे मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता,
मुझे तो फर्क पड़ता है अपने जीने या जिंदा रहने से,
जिसकी कोई सीमा न हो
जाति, धर्म, मजहब, उम्र, समय, दायरा न हो
अपने-पराए, ऊंच-नीच, अमीर-गरीब के
बंधनों की सीमा का प्रतिबंध न हो।
बस! इसीलिए जीना छोड़ा दिया है मैंने
और अब जिंदा रहने के लिए कुछ करना चाहता हूँ,
जो जीने से भी ज्यादा सार्थक हो
जिसमें किसी को ईर्ष्या, द्वेष, निंदा, नफरत,
झिझक, शर्म, संकोच डर न हो।
बस! ऐसा भाव हो जो संबल दे सके
मुझे आज जिंदा रहते हुए,
न कि उलाहना दे मेरी सोच को,
बस यही मेरी आदत है
या मान लीजिए मैं ऐसा ही हूँ।
भीड़ का हिस्सा बनना मुझे मंजूर नहीं ह,
इसीलिए मैं आपकी समझ में भी नहीं आ रहा हूँ।
क्योंकि मैं भीड़ के साथ नहीं, भीड़ से अलग चलता हूँ,
ठीक वैसे ही जैसे आज और अभी से
जीने की बजाय जिंदा रहने के लिए
कुछ अलग करना चाहता हूँ,
बेवकूफ नहीं हूं मैं
जो यूँ ही जीना छोड़ दिया मैंने।
मैं तो जिंदा रहना चाहता हूँ,
सिर्फ कुछ वर्ष तक ही नहीं
आने वाली कई पीढ़ियों के साथ रहना चाहता हूंँ
ऐसा जीकर नहीं जिंदा रहकर ही हो सकता है
ये बात अच्छे से समझता हूँ मैं।
आप क्या सोचते हैं? सोचते रहिए
आप जीना चाहते हैं, जीते रहिए,
मैं अपनी राह चल पड़ा हूँ
मेरी राह में बाधक मत बनिए,
खुद भी खुश रहिए और हमें भी रहने दीजिए
आप जीते रहिए और हमारे जिंदा रहने के लिए
थोड़ी दुआ, प्रार्थना भी करते रहिए।

*सुधीर श्रीवास्तव

शिवनगर, इमिलिया गुरूदयाल, बड़गाँव, गोण्डा, उ.प्र.,271002 व्हाट्सएप मो.-8115285921