अहंकार
अजय का तबादला दूसरे शहर में हो गया था। किसी दलाल के द्वारा उसने अपना मकान राजीव को किराये पर उठा दिया। दो वर्ष तक तो सब ठीक चलता रहा।
पर एक दिन महीने की आखिरी तारीख को उसके पास राजीव का फोन आया, “हम कल मकान खाली कर रहे हैं। आप हमारा एक महीने का जमानती किराया लौटा दीजिए, ताकि आपको मकान की चाभी लौटाई जा सके।”
“शर्त के अनुसार आपको हमें एक महीने पहले बताना चाहिए था, ताकि हम नए किरायेदार की व्यवस्था कर पाते। अब हम आपको जमानती किराया तो लौटा नहीं पाएंगे। आप दलाल आशुतोष के पास चाभी छोड़कर चले जाएँ।”
पर राजीव किराया वापिस लौटाने पर अड़ा रहा व चाभी दलाल को देकर नहीं गया। अगले दिवस उसी शहर के सेशन जज गोपाल दास का फोन आया, “मैं सेशन जज गोपाल दास बोल रहा हूँ। राजीव मेरा दामाद है, आप उसे एक महीने का जमानती किराया वापिस करके अपनी चाभी ले लीजिए।”
“पर सर, तय तो यह हुआ था कि राजीव को मकान खाली करने से पहले एक महीने का नोटिस देना चाहिए था, जो उसने दिया नहीं। अत; हम उसे किराया क्यों लौटाएँ?” अजय ने विनम्रता से कहा।
“देखो मिस्टर अजय, आप नोटिस की बात मत करो। राजीव से मकान मालिक द्वारा तंग किए जाने की शिकायत पर, मैं कल ही आपके मकान पर नोटिस लगवा दूंगा ओर तब आपको मकान का ताला खुलवाने में कोर्ट के चक्कर लगाते लगाते बरसों लग जाएंगे।” कहकर जज ने गुस्से में फोन पटक दिया। यह पद का कैसा दुरूपयोग था?
— विष्णु सक्सेना